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द्वितीय माथास माध्यम निखितभुगमजनजनितमनोरयामासिमिः परिभताभोगभूमिभूकहप्रभाव पासवानोन्मुखपुण्यालेखिभिः वनराजिमाखिभिः तात्तिययः प्राला भनि लिया गयाबरमा परमाणम्मन्नु विस्तारपामासुः ।
मार्गोपान्तवनमावलियायापनीताप्रपा पूर्वाभ्यर्मसरोवतीर्णपानण्यातदेहश्रमाः। पुपैर्मन्दमुवः फलैर्मतधियस्तोपैः पृतम्बीउनाः पान्था यन्त्र पान्ति केलिकमलग्यालोकहारधियः ॥ ११ ॥
अपि च यत्र पक्षाध्यकार: सुवर्णदक्षिणा, मधुनमायमः समासंवधु, परदारोदन्तः कामागमेषु, क्षणिकस्थितिर्दशबख्शासनेषु, चालविणसः पृपवरवेषु, भावसंकरः संसर्गविद्यासू,
कैसे हैं धनश्रेणी के वृक्ष ? समस्त लोक के मनोरथ पूर्ण करनेवाले जिन्होंने देवकुरु च उत्तर कुरु-आदि भोगभूमि संबंधी कल्पवृक्षो का माहात्म्य तिरस्कृत किया था एवं जिनकी पवित्र आकृति फल देने के लिए उत्कण्ठित थी।
जिस अषन्ति देश में ऐसे पथिक, क्रीडाकमल संबंधी पुष्पमालाओ की चंचल लक्ष्मियाँ (शोमाएँ ) धारण करते थे, जिनका गर्मी से उत्पम हुआ फष्ट, मार्ग के समीपवर्ती उद्यान वृक्ष-पंक्ति के पत्तों की छाया द्वारा दूर किया गया था। जिनका शारीरिक श्रम ( खेव ), जल से भरे हुए निकटवर्सी तालाबों से बहती हुई शीतल समीर (वायु) द्वारा नष्ट कर दिया गया था। जो फूलों की प्रामि से विशेष इक्ति थे और वृक्षों के भाम्रादि फल प्राप्त होजाने के फलस्वरूप भोजन की आकांचा रहित हुए जिन्होंने जल-क्रीड़ाएँ सम्पन्न की थी' ।। १ ।।
जिस अवन्ति देश में पलव्यवहार' सुवर्ण-दक्षिणाओं के अवसर पर था । अर्थात्जहाँपर प्रजा के लोग सुवर्ण को कौटे पर तोलते समय या सुवर्ण-वान के अवसर पर पालम्यवहार (परिमाण विशेष-४ रसी का परिमाण) से तोलते थे या लेन-देन करते थे, परन्तु यहाँ के देशवासियों में कहीं भी पल व्यवहार (मांस-भक्षण की प्रवृत्ति) नहीं था। जहाँपर मधु समागम घर्षप्रवर्तनों में था। अर्थात्-वर्ष व्यतीत होजाने पर एक बार मधु-समागम (बसन्त ऋतु की प्राप्ति ) होता था परन्तु प्रजाजनों में मधु-समागम (मद्यपान) नहीं था। जहाँपर पग-वारा-उदन्त कामशास्त्रों में था। अर्थात्-उत्कृष्ट स्त्रियों का वृत्तान्त कामशास्त्रों में श्रवण किया जाता था अथवा उल्लिखित था न कि कुलटाओं का, परन्तु यहाँ के प्रजाजनों में पर-दारोवन्त (दूसरों की स्त्रियों का सेवन ) नहीं था अथवा 'परेषां विदारणं या परदारा' अर्थात्-दूसरों के घात करने की अनीति प्रजाजनों में नहीं थी। जहाँपर घृणिक-स्थिति बौद्ध दर्शनों में थी। अर्थात् बौद्ध दार्शनिकों में समस्त पदार्थों में प्रतिक्षण विनश्वरता स्वीकार करने की मान्यता थी, परन्तु यहाँ की जनता में क्षणिक स्थिति (कहे हुए वचनों में चंचलता) नहीं थी। अर्थात वहाँ के सभी लोग कई हुए पचनों पर द रहते थे। जहाँपर चापलापिलास (चपलता) वायु में था। परन्तु यहाँ के प्रजाजनों में चापलविलास (परखियों के ऊपर इस्तादि का क्षेप) नहीं था। अथवा [चाप-ल-विलास अर्थात्-चापं लातीति चापलं तस्य विलासः ] अर्थात् यहाँ के लोगों में निरर्थक धनुष का महण नहीं था। जहाँपर मावसकर भरतऋषि-रचित संगीत शास्त्रों में था। अर्थात्---- भाषसंकर ( ४६ प्रकार के संगीत संबंधी भावों का मिश्रण या विविध अभिप्राय ) संगीत शारों में पाया जाता था, परन्तु प्रजाजनों में भाष-संकर (क्रियाओं-कर्तव्यों का मिश्रण) नहीं था। अर्थात् -- यहाँ के ब्राह्मणादि म्हों व प्रमचारी-प्रावि आश्रमों के कर्तव्यों में व्यामिश्रता (एक वर्ण का कर्तव्य दूसरे वर्ण द्वारा पालन किया
१. उपमालहार। २. उपमालंकार । ३. पलं मासं परिमाणं च । ४. मधु मधं वसन्तथ ।