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________________ यशस्तिलाकचम्पूकाव्ये सवामिनः प्रासालतियु, सम्मति:कायेषु, कस्कविताकर्णनं पुरुषपरीक्षाम, रामसपातः पत्त्रक देषु, बन्धविधिखीराम जि मेद पाहतेषु, उपसर्गयोगो भाष, निपाततिः शब्दास्त्रेषु, दोपचिन्ता भिषादयनेषु, भानिशमन याक जाना ) मही भी। अर्थात्- समस्त प्राणादि षणों के लोग अपने-अपने कर्तव्यों में तत्पर होते हुए दूसरे वर्णक कर्तव्य नहीं करते थे। जहाँपर परद्रव्याभिलाष मन्दिरों के निर्माण में था । अर्थात-वहाँ के लोग मन्दिरों के निर्माणार्य पर-व्य-अभिलाष करते थे। अर्थात्-उत्कृष्ट (न्याय से उपार्जन किये हुए) पन की था उत्कृष्ट प्रष्ट की इच्छा करते थे, परन्तु प्रजा जनों में पर-द्रव्य-अभिलाषा ( दूसरों के धन के अपहरण की लालसा)नहीं थी। जहाँपर +अक्रमगति सपों में पाई जाती थी। अर्थात्-जहाँपर अक्रमगति (बिना पैरों के गमन करना ) सांपों में थी, परन्तु वहाँ के लोगों में अक्रमगति ( अन्यायप्रवृत्ति) न्द्री यो। जहाँपर करकठिनताकर्णन, सामुद्रिक शासों में था। अर्थात्-हाथों की कठिनता रूप पिन द्वारा शुभ फल का निरूपण सामुद्रिक शामों में पाया जाता था, परन्तु प्रस्तुत देश में कर-कठिनताश्रवण (राबटेक्स की अधिकता का भवरण) नहीं था। जहाँपर शस्त्रसंपात (छुरी-औरह शकों का व्यापार) काटने में अथवा नागवल्ली के पत्तों के काटने में था.किन्त इन्द्रियों के काटने में शवों र प्रयोग नहीं होता था। जहाँपर बन्धविधि घोड़ों की कीसानों में थी। अर्थात् जहाँपर घोड़ों की मौदामों में बन्ध-विधि ( वृक्षों की जड़ों का पीढ़न) पाई जाती थी, परन्तु जनता में पन्धविधि (लोहे की साकनों द्वारा बाँधने की विधि) नहीं थी। जहॉपर लङ्गभेद शासों में था। अर्थात् लिङ्गभेद (कीलिक, पुलिस नपुंसकलिङ्ग भेद-दोष ) प्राकृत व्याकरण शालों में पाया जाता था, परन्तु जनता में लिक भेष (जननेन्द्रिय का छेदन अथवा तपस्वियों का पीड़न ) नहीं था। जहाँपर उिपसर्गयोग धातुओं (भू,ब गम्बादि क्रियाभों के रूपों) में था। मात्-भू-आदि धातुभों के पूर्व उपसर्ग (प्र-परा-आवि उपसर्ग) बोरे जाते थे परन्तु मुनियों के धर्मध्यानादि के अवसर पर उपसर्ग-योग ( उपद्रयों की उपस्थिति ) नहीं वा। जहाँपर निपातश्रुति व्याकरण शास्त्रों में थी। अर्थात्-निपातश्रुति (निपात संशावाले अध्यय शब्दों न प्रवण अथवा पुरन्दर, पायम, सर्वसह और द्विपंतप-इत्यादि प्रसिद्ध शब्दों का श्रवण ) ज्याकरण शास्त्रों में थी परन्तु निपावभुति (प्राणियों की हिंसावाले यज्ञों-मश्वमेध व राजसूय-आदि की विधि के । समर्वक वेदों का प्रचार अथवा सदाचार-स्खलन ) जनता में नहीं थी। 'जहाँपर दोष-चिन्ता (पात, पिच कफों की विकृति र विचार) वैयक शास्त्रों में थी, परन्तु जनता में योधचिन्ता ( दूसरों की निन्दा भुगली करना) नही थी। इसीप्रकार जाहाँपर नामनिशमन शब्दालारशाली शास्त्रों में था। अर्थात् मानिशमन (पदों का विच्छेद) शब्दालारों में सुना जाता था, परन्तु मानिशमन (जीवों का पावें रना भषया नव का खंडन करना या भागना) जनता में नहीं था। A विषियनुराकीकात इति ग-। A सतरघकीड़ास इत्यर्थः । १. वा चोक-कलमकरिमी हस्ती पादौ वा पनिकोमसो। यस्य पाणी च पादौ च सस्प राज्य विनिर्दित ॥१॥ यस्तिलक संस्थत टीका पु. १.१ से संग्रहात--सम्पादक ।। भराव्यं पर परदार । ममः अम्पाय: परणामावर । अलि हस्तथा । किबीनपुंसकारी पखी च। 1 उपसर्ग: उपदवः प्रपरादिध। निपातः स्वाचारश्यपः प्रविशब्दोच्चारणं च । दोषाः पैन्याया। पाताया। मापसाचर्म विश्वमय।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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