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________________ १०६ द्वितीय आश्वास सीताहरणश्रवणमितिहासेषु, बन्धुकलद्दाख्यानं भारतकथासु, कुरुवृत्तिः के किस्थानेषु धर्मगुणच्छेदः संग्रामेषु, कुटिलता कामकोदण्डकोटिषु । किं । धर्मे यत्र मनोरथाः प्रणयिता यत्रातिथिप्रेक्षणे हा यत्र मनीषितानि मतयो यत्रोखणाः कीर्तिषु । सत्येय मनांसि विक्रमविधौ यत्रोत्सव देहिनां यत्रान्येऽपि निसर्गसङ्गनिपुणास्ते से च सन्तो गुणा ॥ १३ ॥ rang fronाता पृथुवंशतिपुरी ॥ १४ ॥ सौधनदध्वजाप्रान्तमणिदर्पणलोचना या स्वयं त्रिदशायालक्ष्मी दनुमिवोत्थि ॥ १५ ॥ शोभते यत्र सद्मानि सितयैः । इरादिशिखराणीव नवनिर्माकनिर्गमैः ॥ १६ ॥ था, जहाँ पर *सीता हरण - श्रवण अर्थात् - सीता ( जनकपुत्री ) के हरे जानेका श्रवण, रामायणादि शास्त्रों में परन्तु सीता हरण - श्रवण - अर्थात् लक्ष्मी (धन) का उद्दालन ( दुरुपयोग या नाश ) जनता में नहीं था। जहाँपर बन्धु - कलह - श्राख्यान अर्थात् - युधिष्ठिर व दुर्योधन आदि बन्धुओं के युद्ध का कथन, पाण्डवपुराण अथवा महाभारत आदि शास्त्रों में था परन्तु वहाँपर भाइयों में पारस्परिक कलह नहीं थी । जहाँपर कुरङ्गवृत्ति (मृगों की तरह उछलना ) क्रोदाभूमियों पर थी । अर्थात् क्रीडास्थानों पर वहाँ के लोग हिरणों- सरीखे उछलते थे परन्तु वहाँ की जनता में कुरङ्गवृत्ति ( धनादि के हेतु प्रीतिभङ्ग ) नहीं थी । जहाँपर धर्म-गुरुछेद ( धनुष की डोरी का खण्डन ) युद्धभूमियों पर था, परन्तु धर्म-गुण- छेव ( दानपूजादिरूप धर्म व ब्रह्मचर्यादि गुणों का अभाव ) वहाँ के लोगों में नहीं था एवं जहाँपर वक्रता ( टेढ़ापना ) कामदेव के धनुष के दोनों कोनों में थी, परन्तु वहाँ की जनता की वित्त वृत्तियों में वक्रता (कुटिलवामायाचार ) नहीं थी । 1 कुछ विशेषता यह है जिस अवन्ति देश में प्राणियों के मनोरथों का झुकाव, धर्म (दानपुण्यादि) पालन की ओर प्रेम का झुकाव साधुजनों को आहारदान देने के लिए उन्हें अपने द्वार पर देखने की ओर, मानसिक इच्छाओं का झुकाव वान करने की ओर प्रवृत था । इसीप्रकार उनकी बुद्धियाँ यशप्राप्ति में संलग्न रहती थीं और मनोवृत्ति का झुकाव सदा हित, मित व प्रिय बचन बोलने की ओर था एवं जहाँ के लोग पराक्रम प्रकट करने में उत्साह शीश थे। इसीप्रकार षहाँ के लोगों में उक्त गुणों के सिवाय वूसरे उदारता व वीरता आदि प्रशस्त गुणसमूह स्वभावतः परस्पर प्रीति करने में प्रवीण होते हुए निवास करते थे ||१३|| उस अषति देश में इक्ष्वाकु आदि महान् क्षत्रिय कुलों में उत्पन्न हुए राजाओं की राजधानी विख्यात ( प्रसिद्ध ) पायिनी नाम की नगरी है ||१४|| राजमहलों पर आरोपण की हुई ध्वजाओं के भागों पर स्थित हुए रक्तमयी दर्पण ही हैं नेत्र जिसके ऐसी वह उज्जयिनी नगरी ऐसी प्रतीत होती यी - मानों स्वर्ग लक्ष्मी को देखने के लिए दी स्वयं ऊँचे उठी हुई शोभायमान होरही है ॥१५॥ जिसप्रकार कैलास पर्वत के शिखर नवीन सर्पों की कौंचलियों के मिलने से शोभायमान होते है उसी प्रकार उस नगरी के गृह-समूह भी शुभ्र ध्वजाओं के फहराने से शोभायमान हो रहे थे ||१६|| *सौता जानकी लक्ष्मी । 1 कुरशः कुस्तिनृत्यं सुगवा कुस्सितरहं या भगवदुच्छलमं वा । १. परिसंख्यालंकार । २- या खोर्चा' यत्र साधारणं किचिदेकत्र प्रतिपाद्यते । अभ्यत्र तसा परिसंयोध्यते मया ॥" सं-टी- पृ० २०३ से संकलित – सम्पादक । ३. दीपक समुचयालंकार । ४. जाति-भलंकार । 1 ५. उश्प्रेशालंकार । ६. उपमालंकार । .
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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