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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये नपानमाला यत्र तोपमः। भान्तीय मेलामन्दिनितम्बाः साभिषः ॥ १०॥ श्रीमत्वमपिरम्माणि वा इम्बोणिर्वते । शरणमीसपर्यास विफलाबामरक्रियाः ।। १८ ॥ सर्व चीभिवडामा मिष्टोचामपाएपणः । पौरकामदुहा यत्र भागभूमिनुमा इव ॥ १९ ॥ मक सिमानिव जालमागोनुनै हताः । वृभा रतिषु शैराणां यन्त्रव्यवनपुत्रिकाः ॥ २० ॥ चन्द्रोपलमाला निशि चन्द्रातपशुसः । इरन्ति पन हम्याणि पन्वयारागृहभियम् ॥ २१ ॥ पत्र सौषाम्मे सम्पविभमणाः क्षणम् । ओमाध्वनि सुतं यान्ति रविल्यम्दनवाधिनः ॥ २२ ॥ पस्स्थभित्तिमनियोतीता पत्र निशास्वपि । वियोगाय न कोकानां भवन्ति गृहदीपिकाः ॥ २३ ॥ स्गगाय या वित्तानि विसं धर्माय देहिनम् । गृहाण्यागन्तुमोगाय विनयाप गुणागमः २४ ।। सस्त्रवर्मनि पान्याना बहुदासपरिमाहात् । मूढीमधम्ति चेतासि यत्राभ्युपगमोनिषु ॥ २५ ॥ जिसमें नवीन व कोमल पत्तों की मालाओं के चिन्होंवाली तोरण-पंक्तियों (वन्दनमाला-श्रेणियों) उसप्रकार शोभायमान होती थी जिसप्रकार करधोनी से वेष्टित होने के कारण आनन्द उत्पन्न करनेवाले गृहलक्ष्मी के नितम्ब ( कमर के पश्चाद्भाग) शोभायमान होते हैं। जिस नगरी के अन्तःपुर के महलों ने, जो कि क्रीड़ा करते हुए मयूरों से मनोहर थे, गृह लक्ष्मी की पूजाओं में किये जानेवाले चमरों के उपचार (टोरे जाने ) निष्फल कर दिये थे ।।१८। जिस उज्जयिनी नगरी में, समस्त छहों ऋतुओं (हिम, शिशिर, वसन्त, प्रीष्म, वर्षा और शरद ऋतु) की लक्ष्मियों से अलत है शोभा जिनकी ऐसे गृह संबंधी कमीचों के वृक्ष, भोगभूमि के कल्पवृक्षों सरीखे नागरिकों के लिए वाच्छित फल देते हुए शोभायमान होरहे ॥१९॥ जिस उज्जयिनी नगरी में रात्रि में गृह संबंधी झरोखों के मार्गों से पीछे से आनेवाली (पहनेवाली) सिया नदी की शीतल, मन्द व सुगन्धित वायु द्वारा इस नगरी के निवासियों की संमोग-क्रीड़ा में सलाहुए खेद को दूर करने के हेतु यन्त्रों द्वारा संचालित कीजानेवाली पलों की पुतलियाँ व्यर्थ कर दीगई वी, क्योंकि वहाँ के नागरिकों का रतिक्लिास से उत्तम हुआ खेर सिप्रा नदी की शील, मन्द सुगन्धि मायु द्वारा, जो कि उनके गृहों के मरोखों के मार्ग से प्रविष्ट होरही थी, दूर होजाता था ।।२०॥ जिस नगरी के गृह, रात्रि में ऐसे चन्द्रकान्त-मणिमयी भित्तियों के अनभागों से, जिनसे पन्द्र किरणों के संसर्ग-श जन-पूर चरण होरहा था, फुख्यारों की गृह-शोभा को तिरस्कृत कर रहे थे ।॥ २१ ॥ सूर्य रथ के घोड़े, जिस नगरी के राजमहलों के अप्रमागों (शिखरों) पर स्थापित किये हुये कलशों पर सण भर विश्राम कर नेने के फलस्वरूप याच मार्ग में सुखपूर्वक (विना खेद उठाए) प्रस्थान करते है ।। २२ ॥ जिस नारी की गृह-वावड़ियों, गृहमितियों पर जड़े हुए रमों की कान्तियों से चमकती हुई सदा प्रकाशमान रहती थी, जिसके फलस्वरूप में रात्रि में भी पकवा-पकली का वियोग करने में समर्थ नहीं थी, क्योंकि पावदिनों के निकटवर्सी चकमा चकबीको रसमयी मितियों के प्रकार से रात्रि में भी दिन प्रतीत होता भा' ।।२३।। जिसमें नागरिकों की लक्ष्मी पात्रदान के लिये थी और चित्रवृत्ति धार्मिक कार्यव्य-पालन के लिये वी एवं गृह अतिमि-सत्कार के निमित्त ये सथा विद्याभ्यास आदि गुणों का उपार्जन बिनयशीत बनाने केतु बा ॥२४॥ जिस नगरी की दानशालाओं ( सदावर्त स्थानों) के मार्ग पर पानी-लोग इतनी अधिक संख्या में एकत्रित होवाते थे, जिससे कि याचक पान्थों की वित्तवृत्तियाँ, वातारों को उठकर नमस्कार 1. उपमालंकार। २. हेतूपमालंकार। 1. उपमालंकार। ४. जाति-मलकार। ५ उपमालंकार । प्रतिषस्तूएमालंधर। .. म्रान्तिमानकार। 4. दीपचकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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