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द्वितीय आश्वास
सरस्वानि वाधनां सर्ववस्तूनि भूभृताम् । ह्रीवानां सर्वसाराणि यत्र संजग्मिरे मिथः ॥ २६ ॥ वयस्था भोगभूमीनां सधीची सुरसंपदाम् । आली व भोगभूतीनां या बभूव निजश्रिया ॥ २७ ॥ अपापविमोक्षान्तनेत्रापाङ्गशिलीमुखाः । मुधा कुन्ति कामिन्यो यत्र कामानगर्जितम् ॥ २८ ॥ अकली कान्ताभोगाः पताकितलोचनाः पृथुतरककुम्भा मदालसविभ्रमाः ।
स्मररिद्राः कामोद्दामा इवाश्कल्पिता त्रिभुवनजनानीसोमा विभान्ति यङ्गनाः ॥ २९ ॥
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यत्र व कामिनीनां चिकुरेषु मिलनिषु द्विधामात्रशेन स्वामिसेवासु केकरा लोकितेषु कुटिल्यं न विनयोपदेशेषु भूषा भङ्गसंगमो न परस्पर मैत्रीषु, लोचनेषु वर्णसंकरो म कुलाचारे वचन बोलने में किंकर्त्तव्यविमूढ ( किन-किन दाताओं को नमस्कार किया जावे ? इस प्रकार के विचार से शून्य ) होगई थीं || २५ || जिस नगरी में सातों समुद्रों की समस्त रत्न राशि (श्वेत, पीत, हरित, अरुण व श्याम रत्न समूह ) और पर्वतों की समस्त यस्तुएँ ( कपूर, कस्तूरी व चन्दनादि ) तथा द्वीपों की समस्त धनराशि परस्पर में सम्मिलित ( एकत्रित हुई सुशोभित थी' || २२ ॥ जो उज्जयिनी नगरी अपनी लक्ष्मी से भोगभूमि की सखी, देवलक्ष्मी की मित्राणी एवं कर्पूर, कस्तूरी व चन्दनादि भोग सम्पति की सहेली थी ||२७|| जिस नगरी की ऐसी कमनीय कामिनियाँ, जो कि भ्रुकुटि ( भोहें) रूपी धनुषों के विलास या नामोग्राम ( उतार-चढ़ाव से चंचल हुए नेत्रों के प्रान्तभाग रूपी षाणों से सुशोभित हैं. कामदेव का धनुष वर्ष ( ग ) निरर्थक कर रही हैं ||२८|| जिस नगरी की काम से उत्कट ऐसी कमनीय कामिनियाँ, संप्रामार्थं सजाई गई कामदेव के हाथियों की घटाओं ( समूहों ) सरीखी शोभायमान होरही हैं। कैसी हैं वे कमनीय कामिनियाँ और कामदेव की गज - ( हाथी ) घटाएँ ? जिनका विस्तार केशपाश रूपी विशाल ध्वजाओं से मनोश है, जिनके नेत्र पताकित ( छोटी ध्वजाओं से व्याप्त हैं। जिनके कठिन और ऊँचे कुच ( स्तन ) ही मनोह कलश हैं, जिनकी भुकुटियों ( भोहों ) का पिलास (क्षेप - संचालन ) यौवन- मद से मन्द उद्यमशाली हूँ एवं जिन्होंने अपने अनोखे सौन्दर्य द्वारा तीन लोक संबंधी प्राणियों के चित्रा क्षुब्ध ( चलायमान ) किये हैं ||२६||
जिस यिनी नगरी में निसर कृष्णता * नवीन युवती स्त्रियों के केशपाशों में थी । अर्थात् उनके केशपाश निसर्गेकृष्ण (स्वाभाविक कृष्ण - भँवरों व इन्द्रनील मणियों जैसे श्याम व चमकीले ) थे परन्तु यहाँ सम्यष्टि नागरिकों के चरित्रों में निसर्गकृष्णता ( स्वाभाषिक मलिनता - दुराचारता ) नहीं थी । जहाँपर द्विधाभाष ( केशपाशों को कंधी द्वारा दो तरफ दाई बाई ओर करना ) खियों के केशपाशों में था, परन्तु मानवों की स्वामी सेवाओं में द्विधाभाव ( दो प्रकार की मनोवृत्ति - कुटिल विद्वृति या दोनों प्रकार से घात करना ) नहीं था । जहाँपर कुटिलता वक्रता – टेवापन ) रमणीक रमणियों की कटाक्ष-विक्षेपवाली तिरी चितवनों में थी परन्तु मानवों के विनय करने के पतष में कुटिलवा ( मायाचार या अप्रसन्नता ) नहीं थी । जहाँपर भ्रुकुटि ( भोहें ) रूपी लताओं में भङ्ग : संगम (बिलास पूर्वक ऊपर चढ़ाना ) था, परन्तु मनुष्यों पारस्परिक मैत्री में भङ्ग-संगम ( विनाश होना) नहीं था । पर वर्णसंकरा (वेष, कृष्ण व रक्त वर्णों का सम्मिश्रण ) नेत्रों में थी, परन्तु विवाहादि कुलाचारों में वर्णसंकरता ( एक ब्राह्मणादि वर्ण का दूसरे क्षत्रियादि वर्णों में विवाह होने का सम्मिश्रण ) नहीं थी ।
१. अतिशयार्लकार । २ दीपकालंकार ३. दीपकालंकार । ४ उपमालंकार । ५. रूपक व उपमालंकार कृष्णसा फालता दुराचारता च । * द्विधाभावः उभयथा विभागः उभयमेवना । कुटिलता वक्ता असता + भङ्गः स्क्षेपः नाशरव । $ रकादयः ब्राह्मणादय !