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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये स्थोपरेनु विवेकविता - परिमापनेषु, मध्यदेशेषु दरिद्रता न मनीषितेषु, नितम्वेषु माता न विद्याव्यतिकरेषु, परणनलेला वृद्धिविलोपदर्शनं । विभवमहोत्सर, पादतठेषु पासुलता न वृत्तेषु ।
वा देवायतनमहानिरमोदतानः सतः प्रीणितपान्थसाह यक्ष्मीनिवास है। सपीमिर्जलदेवतावसतिभिर्देवोपमानर्जन स्वावासपुरीव भाति विभवेरन्यैश्च तैस्सैरपि ॥ ३०॥
तस्या पराकमकुहारातिसमस्तारातिसंतानता, सहसवर्णाभमाचारपरिपाखानाम, गुरुरिव राज्यलक्ष्मीविनयोपदेशस्थ, प्रथमयुगावतार हब सच्चरित्रस्य, धर्ममूतिरिव सस्यव्रतस्य, प्रहात्य इव सलोकाश्रयणस्य, जहाँपर युवती स्त्रियों के कुच (स्तन) कलशों में विवेकषिकलता ( परस्पर संजनवा ) थी, परन्तु परस्पर एक दूसरे के साथ पालाप करने में विवेकविकलता ( चतुराई-शून्यता) नहीं थी। जहॉपर स्त्रियों के उदरप्रदेशों में दिरिद्रता ( कृशता) थी, परन्तु मनुष्यों की वाञ्छित वस्तुओं में दरिद्रता (निर्धनता ) नही थी। जहाँपर जड़ता (गुरुता-स्थूलता )त्रियों के नितम्बों (कमर के पीछे भागों) में थी, परन्तु मनुष्यों के विद्याभ्यास-संबंधों में जड़ता ( मूर्खता ) नहीं थी। जहाँपर वृद्धि-विलोप-दर्शन (वढ़े हुओं को निहनी द्वारा काटने का दर्शन) पैरों के नाखूनों में था, परन्तु लक्ष्मी-प्राप्ति के उपायों (कृषि-व्यापारादि अद्योगों) में वृद्धि-विलोप-दर्शन ( लक्ष्मी के नष्ट होने का दर्शन ) नहीं था। जहाँपर पांसुलता (धूलि. धूसरित होना) पैरों के वलुओं में थी परन्तु नागरिकों के परित्रों में पांसुलता ( मलिनता या व्यभिचारप्रवृत्ति ) नहीं थी।
जो सज्जयिनी नगरी अत्यन्त ऊँचे व विशाल जिनमन्दिरों से, देवताओं की क्रीड़ा के प्रवेशपाले बगीचों से, पथिक समूहों के हृदय संतुष्ट करनेवाली दानशालाओं (सदावर्त स्थानों ) से, धनाद 14 वैभवशाली गृहों से, देवताओं की निवासभूमि वापड़ियों से एवं देवताओं सरीखे सुन्दर व सदाचारी मानव-समूह से और इसीप्रकार की दूसरी जगप्रसिद्ध धनादि संपत्तियों से स्वर्गपुरी ( अमरावती ) सरीखी शोभायमान होरही है ॥३०॥
अहो, सजनता रूप अमूल्य माणिक्य की प्राप्ति में तत्पर और प्रसिद्ध 'धण्डमहासेन' राजा के सुपुत्र हे मारिदत्त महाराज ! उक्तप्रकार से शोभायमान उस उज्जयिनी नगरी में ऐसा 'यशोघे नाम का षि राजा था। जिसने भपने पराक्रमरूप परशु द्वारा समस्त शत्रुओं के कुलवृक्ष काट डाले थे। जो समस्त घोषि पों (ब्राह्मण-आदि) और आश्रमों (ब्रह्मचारी-आदि) में रहनेवाली प्रजा के सदाचार की उसप्रकार रता - करता था जिसपनर पिता अपनी सन्तान की रक्षा करता है। जो राजनीति-विद्याओं (बान्धीक्षिकी, रनेव जयी, वार्ता य दण्डनीति) के विचार में वृहस्पति-सरीखा पारदर्शी था। जो सदाचार के पालन में ऐसा ।। मालूम पड़ा था मानों-कृतयुग की मूर्तिमती प्रवृत्ति ही है। मथवा जो सदाचार का पालन उसप्रकार करता था जिसप्रकार कृतयुग की जनता की प्रवृत्ति सदाचार-पालन में स्वाभाविक तत्पर रहती है। ओ सत्यव्रत का पालन करने से ऐसा प्रतीत होता था, मानों-धर्म की मूर्ति ही है। जो परलोक प्रा लिए मोज़-सा था। अर्यान्-जो पारलौकिक स्थायी सुख की प्राप्ति उसप्रकार करता था जिसप्रकार मोवाई मार्ग ( सम्यग्दर्शन-शान चारित्र) के अनुष्ठान से पारलौकिक शाश्वत कल्याण प्राप्त होता है। ।
विषक: असंलमता चातुर्य च। शिरिद्रता कृशता अपनता । जता गुरुता मूर्खता । धिमहत आश्च श्रीब। पांमुलता पारवारिकता भूलि भूसरता च ।
१. श्लेष परिसंख्यालंकार। १, उपमा म समुच्चयालंकार । .