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________________ द्वितीय आश्वास निदकावास हव मनोभिलषितस्त्र, पुष्पाकर इचोलपत्रपरम्परागमनस्य, भूसर्ग व सर्वशाधिवगुणानां समवायः, प्रजापतिखि लाभवर्णानां धुरि वर्णनीयः, तारेश्वर इव चतुरुदधिमध्यवर्तिनः कुवल्यस्य प्रसाधयिता, शरस्समयाव प्रतापवधिसमिनमण हलः, हेमन्त इव पस्लविताप्रितमकन्दया, शिशिर व दृषितद्विदनापाङ्ग पहजः, वसन्त इव समानवितद्विजातिः, ग्रीष्म इव शोपितपरवाहिनीपसरः, पयोवागम इव संतपिता का सभी प्रभा गईनमा स्नानागा सकतीर विशारदमसिः क्षितिपतिः।। जो मनचाही वस्तुओं के प्राप्त करने में स्वर्गलोक जैसा समर्थ था। जिसप्रकार वसन्त ऋतु महोत्सब श्रेणियों की प्राप्ति की कारण होती है उसीप्रकार जो महोत्सव-श्रेणियों की प्राप्ति का कारण था। जो भूमि की सृष्टि सरीखा समस्त पार्थिव गुणों का समवाय (आधारभूत ) था | अर्थात्-जिसप्रकार पृथिवी-सृष्टि में समस्त पार्थिव गुण (पृथिषी के गुण-भार-बहन-श्रादि व समुद्र-पर्वताधि के धारण की सामध्य) होते हैं उसी प्रकार जिसमें समस्त पार्थिव-गुण ( राजाओं के गुण-उदारता व शूरता-आदि ) विद्यमान थे। जो कीर्तिशाली विद्वान पुरुषों के मध्य में उसप्रकार सर्वप्रथम श्लाघनीय (प्रशंसनीय) था जिसप्रकार ऋषभदेव भगवान कीतिशाली विद्वान पुरुषों के मध्य सर्वप्रथम प्रशंसनीय व पूज्य समझे जाते हैं। जो चारों समुद्रों के मध्यवर्ती कुवलय (पृथ्वीमण्डल) को उसप्रकार साधन करता था-अच्छे राज्यशासन द्वारा उल्लास-युक्त विभूषित करता था-जिसप्रकार चन्द्रमा कुवलय ( चन्द्रविकासी कमल-समूह) को अलङ्कत (प्रफुल्लित ) करता है। जिसप्रकार शरद ऋतु (आश्विन-कार्तिक मास) प्रताप-वड़ित मित्रमण्डल (विशेष ताप द्वारा सूर्यमण्डल को वृद्धिंगत करनेवाली) होती है, उसीप्रकार जो प्रवाप-बर्द्धितमित्रमण्डल (प्रताप-सनिक व कोशशक्ति द्वारा मित्र राजाओं के देश वृद्धिंगत करनेवाला ) था। जिसप्रकार हेमन्त ऋतु (मार्गशीर्ष व पौषमास) पल्लषितकुन्यकुन्दल ( अट्टहास पुष्पलवाओं को कोमल पत्तों से विभूषित करनेवाली ) होती है उसीमकार जो पल्लषित-आश्रित-कुन्दकुन्वन ( सेवकों के कुन्दकुन्दल'-यज्ञान्तस्नान-समूद-को वृद्धिंगत करनेवाला ) था । जिसप्रकार शिशिरऋतु ( माघ व फाल्गुन) दूषित-पलज ( कमलों को म्लान करनेवाली) होती है उसीप्रकार जो दुषित-विषवङ्गना-अपाङ्गपकज (शत्रु-स्त्रियों के नेत्रप्रान्तरूपी कमलों को म्लान करनेवाला) था। जिंसप्रकार चतुराज बसन्त समानन्वितद्विजाति ( कोकिलाओं को आनन्दित करनेवाली) होती है इसीप्रकार जो समानन्वितद्विजाति (मुनियों या जैनब्राह्मणों को प्रमुदित करनेवाला) धा। जिसप्रकार प्रीष्मऋतु शोषित-परवाहिनीप्रसर--कृष्ट नदियों के प्रसर-~-विस्तार-की शोषक होती है इसीप्रकार जो शोषित-परवाहिनीप्रसर (शत्रु-सेना का विस्तार अल्प करनेवाला) था। जिसप्रकार वर्षा ऋतु संतर्पितअर-नीपक-पादप (धाराकदम्म घृक्षों व दूसरे वृक्षों को चारों ओर से जलवृष्टि द्वारा सन्तर्पण करनेपाली) होती है पसीप्रकार जो संतर्पित-वनीपक पाइप ( यापकरूप वृक्षों को सन्तुष्ट करनेवाला) था। इसीप्रकार महापुण्यशाली जो समस्त धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष संबंधी शाखों में विचक्षण बुद्धिशाली था। १. तथा बाह--स्वामी समन्तमद्राचार्य:- . प्रजापतिर्यः प्रपमं जिजीविधः पाशास कृष्यादिषु गर्भसु प्रजाः । प्रबुवृत्तस्यः पुनरवतोदयो ममत्वतो निर्विविदे विदोवरः ॥ १ ॥ वृहत्त्वयंभूस्तोत्र से संगीत -सम्पादक अर्थ-जिस ऋषभदेव तीर्थकर ने अपसर्पिणी काल के चतुर्थकाक संबंधी राजाओं में प्रथम प्रजापति ( समाद) होकर जीवनोपाय के जानने की इच्छा रखनेवाले प्रजापनों को कृषि व ग्यापारादिषट्कों में शिक्षित किया था। पुनः तम्यज्ञानी होकर आश्चर्यजनक माल्मोनति करते हुए तत्वज्ञानियों में प्रधान होकर प्रजाजन, फुटम्योजन, शरीर ३ भोगों से विरक्त हुए ॥१॥ १. भवभूमा यत्र तत्र फुदी प्रजति अन्मेजयः, इतिः श्रुतिः- यशस्तिलक की संस्कृत टीका प• २१. से समुदत - सम्पादक
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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