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________________ सुवीय बाधासः पलिविधानम्, दीरन्मिषल्कमलमालतीबकुलसिलामछिकामोकारिकसुमोपहारामोदमन्दमधुलिहापाप्रमानापरमरकतमयवितपिकापतानम्, अवक्षगमागचगण्यपण्यागनास्तनतुष्मिोत्सार्यमाणमार्गपरिजनबलम्, स्तरोबार्यमालवयजीवितमसः प्रकासमाशोनादविदाधवन्धिवृन्दवनोपरकरलकोलाइए, उदीमालिसिपिसिंहासनक, अमरवरूपरिकर मेरुशिखरमिय, अक्ष्मीकटाक्षवलक्षोभयपक्षविक्षिप्यमाणचामराम्परम्, अमृसोवधिदेवतापासहिगुणतरप्रसराकुवं कुलशैलमिव, उपरिवितवसिमालवितानम्, उदितेन्दुमण्डलमुदयाचलमित्र, अध अर्ध्व मिसीनां च रस्नफलकभागेषु प्रतिबिम्बिसोपासनागतसमस्तसामन्वसमाजम्, अनुरामरदिक्पाल दत्त यात्रामा मित्र, विविधमणिविन्यासत्रिहितबहुरूपाकृते रङ्गस्यावलोकनानीसभूपालबालकाकुखितौविपक्षम्, भाखण्डलसभाप्रतिमल्सम्, 'मा भनत वैकृतमाकसम्, बिनहीत धनयौवनमदोलासितानि से जिसका विभाग किया गया था। जहाँपर प्रचुर कपूर-चूर्ण द्वारा चारों ओर चौक पूरा गया था। जहाँपर कुछ कुछ खिले हुए कमल, मालती (चमेली), बकुल, तिलक, मलिका और अशोक-आदि विविध भाँति के पुष्पों से पूजा होरही थी, जिनकी सुगन्धि-वश उनमें लीन हुए भँवरों से जहाँपर दूसरी मरकत मणिमयी विस्तृत वेदिका रची गई थी। अर्थात्-पुष्प-परागों से उलित हुए भ्रमर बसे होगए थे। जहाँपर मार्ग पर स्थित हुए कुटुम्बी-जन व सेना के लोग सेवा में प्राप्त हुई अनगिनती वेश्याओं के कुचकलशों की ऊँचाई से प्रेरित किये आरहे थे। जहाँपर उसस्वर से पड़े जारहे ऐसे आशीर्वाद-युक्त वचनों में, जो कि जयकार, दीर्घायु और यश प्रकट कर रहे थे, निपुण स्तुतिपाठक समूहों के मुखों से मधुर (कर्णामृतप्राय) कलकल-ध्वनि प्रकट की जारही थी। जहाँपर ॐ रत्नमयी छोटे छोटे खम्भों के मध्य सिंहासन शृङ्गारित (सुसज्जित ) किया गया भा; इसलिए जो (सभामण्डप) कल्पवृक्षों से वेष्टित हुए सुमेरु पर्वत की शिखर-सरीखा सुशोभित हो रहा था। जहाँपर लक्ष्मी के कटाक्ष-सरीखी उज्वल चॅमर-श्रेणी दोनों (दाहिने व बाएँ) पार्श्वभागों पर ढोरी जारही थी। जो ऐसे फुलपर्वत-सरीखा शोभायमान होरहा था, जो कि क्षीरसागर संबंधी देवताबों के नेत्र-प्रान्तभागों से द्विगुरिणत हुए तरङ्ग विस्तारों से व्याप्त था। जहाँपर राजा साहिब के मस्तक के ऊपरी भाग पर उज्वल रेशमी वन का चैदेवा विस्तारित किया गया था। जिसके फलस्वरूप जो चन्द्रमण्डल के उदयवाले उदयाचल पर्वत-सरीखा शोभायमान होरहा था। जिसके अधोभाग के ऊपरीभाग की मित्तियों के माणिक्य-पट्टक देशों में सेवार्थ श्राया हुआ समस्त राज-समूह प्रतिबिम्बित होरहा था ; इसखिए जो ऐसा प्रतीत होरहा था मानों-जहाँपर अधोभाग में प्रतिबिम्बित हुए दिक्पाल स्थानीय देवताओं द्वारा किये हुए संचार का आश्रय करनेवाला-सा सुशोभित होरहा है। जहाँपर ऐसी अमभूमि के देखने से, जहाँपर विविध भाँति के रत्नों से निर्मित हुए सिंह व व्यायादिकों के अनेक आकार वर्तमान थे, सामन्त-बालक भयभीत होजाते थे, जिसके फलस्वरूप जहाँपर सौविदल-काबुकी ( अन्तःपुररक्षक) खेन खिन्न किये गए थे। जो सीधर्म-इन्द्र की सभा के सदृश सुशोभित होरहा था। जहाँपर यहाँ वहाँ संचार करते हुए द्वारपालों द्वारा समीपवर्ती सेवक लोग निम्नप्रकार शिक्षा दिये जारहे थे "आप लोग विकार-जनक वेप मत धारण करो। धन व यौवन-मद द्वारा उपम कराये गए अपने अनुचित व्यवहार छोड़ो। अधिकार-शून्य बुद्धिवाले पुरुषो ! यहाँपर प्रविष्ट मत होत्रो। आप लोग अपने अपने स्थानों पर अवकाश पूर्वक या वाधारहित बैठो। आप लोग परस्पर में संभाषण-युक्त और कुत्सित मार्ग का अनुसरण करनेवाली कथाएँ (वार्ताएँ) मत कहो। अपने चित्तरूपी मन्दर की A x'विगुणीकृततरह का। * 'वतयात्राभाजनमिद कI A सेवा ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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