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________________ २१२ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये समतादाखानितानामपरोत्सर्ग दिग्गजसर्गमिव दर्शयता दयनकोशावणमणिमयूशोन्मुसरेखा केसपुगतापमान कुम्भस्थानोभानामनेगानाममायामसोनभाष्प्रमाणेन्दिन्दिरसम्परीकुलपलयिता गगमापगाभागम्,. तस्ततः सासरलचलस्थानो मेयीन चित्रपटीपटोलरविकाधातदेवानां प्रतियवसपासचल चामरधुम्म्ममामलोचनातामा मुहर्मुहुर्विजयपरम्पराप्रतिपादनपरेणेव दक्षिणचरणेन महीसामुछिखतामुप्तालसालधिकझोलीमानो वाजिनामनिमेष पामोन्मुख स्तिसविधासौधोत्साम, अविरतामानकालागुरुधूपधूमोगमारभ्यमाणदिग्विलासिनीकम्तलमाणम, उत्तरकतरपनाकामनानातन्यमानाम्परसरोइंसमालम्, उसमङ्गभङ्गसंगतानेकमाणिक्योत्कीर्णकलशरुचिरन्यमानखेवारी विचित्रपत्रमाम्, अभि. नबोल्पुलछितपत्रान्तरामविलसत्कीरकामिनीपुनरुपन्दननकप्रसङ्गम, अन्तरारतरावलम्पिटोत्तरकतारहारमरीचिवी पिचयप्रचाराचर्यमाणसुरसरित्सलिलसेकम्, असिमहलकायकर्दमोन्मृष्टस्फटिककुद्धिमतरूपवेकम्, भनल्पकर्पूरपरागपरिकल्पिारणा कैसा है वह सभामण्डप ? जिसने आकाश-गङ्गा का प्रदेश या पाठान्तर में विस्तार उसके (सभामण्डप के) चारों ओर बँधे हुए ऐसे श्रेष्ठ हाथियों के गण्डस्थलों से निरन्तर प्रवाहित होनेवाले मजल की सुगन्धि से खीची जानेवाली अवारयों की श्रेणी द्वारा नीलकमलों से ज्याप्त किया है, जिनके गण्डस्थलों की सिन्दूर-कान्ति दन्तमुँसलों ( खींसों ) के कोशों ( वेष्टन-खोलकों ) में जड़े हुए पनरागमणियों की किरणों की ऊपर फैली हुई पंक्तियों के विन्यासो (स्थापन ) से द्विगुणित की जारही थी और जो ऐसे मालम पडते थे-मानों-ब्रह्मा की दिग्गज सृष्टि में लोगों को दूसरी दिगाज-सृष्टि-सरीखी सृष्टि का दर्शन ही करा रहे। हैं। अभिप्राय यह है कि जिसप्रकार दिग्गज प्रत्येक दिशा में स्थित होते है उसीप्रकार प्रस्तुत गज (हाथी) भी चारों ओर स्थित होने के फलस्वरूप दिगाज सरीखे दिखाई देते हैं। जिसने ऐसे घोड़ों को निरन्तर होनेवाली उषाध्यनि (हिनहिनाने के शब्द) से निकपतो महलों का मध्यभाग शब्दायमान किया था, जिनकी पंक्ति ( श्रेणी ) वेमयोद या पाठान्तर में प्रचुर-बहुलरूप से यहाँ यहाँ की गई थी। जिनका शरीर सक्ष्म रेशमी घरों की व चीनदेशोत्पन्न वनों की नानाप्रकार की पटी ( पछेषड़ी) ष दुक्ख एवं एक कम्बलआदि से वेष्टिव था। जिनके नेत्र-प्रान्तभाग प्रत्येक तृण मास ( कौर ) के वर्षण से कम्पित होरहे मस्तक स्थित चमरों द्वारा स्पर्श किये जारहे हैं। जो अपने ऐसे दाहिने मम पैर से, जो ऐसा प्रतीत होरहा था-मानोंबार बार शत्रुओं पर विजयश्री श्रेणियों की सूचना देने में ही तत्पर है, पृथिषी-तल खोद रहे हैं और जो उसप्रकार शोभायमान होरहे थे जिसप्रकार उछलती हुई समुद्र की विशाल तरङ्गपंक्ति शोभायमान होती है। जहॉपर निरन्तर जलाई जा रही कालागुरु धूप की धूमोत्पत्ति द्वारा दिशारूपी कमनीय कामिनियों के केशपाश रचे जारहे है। जहाँपर विशेष चश्छल फहराती हुई शुभ्र ध्वजा-श्रेणियों द्वारा आकाशरूपी तालाब में इस श्रेणी ही विस्तारित की जारही है। जहॉपर उन्नत महलों के शिखरों पर आरोपित ( स्थापित) किये हुए रत्न-जरित सुवर्णमयी कलशों की कान्ति द्वारा देषियों व विद्याधरियों के कुथ (स्तन) कलशों पर मनोड पत्न-रचना की जारही है। जहाँपर पुष्प व फलों से व्याप्त नवीन पल्लवों ( शाखामों) के मध्यभाग पर क्रीड़ा करती हुई मेनाओं द्वारा वन्वनमाला-श्रेणी द्विगुणित की गई है। जहाँपर बीच-बीच में चनस अथवा महामध्यमरिण सहित का विशेष उज्वल मोतियों की मालाएँ आरोपित की गई थीं लटकाई गई थी, जिससे उनकी किरणों के लहरी-समूह के प्रसारों (विस्तारों) से जहाँपर गङ्गाजल का सिंचाव किया जारहा है। अत्यधिक काश्मीर की तरल केसर के छीटों से व्याप्त हुए स्फटिक मणिमयी कृत्रिम भूमियत 13 * 'रेखालेखातिरिय्यमान' क• I 'गगनापगामोगा' क- ग.। 'कृतासरालयलस्थाना क० ख० प.।। A 'बहुल' । B 'पसीना' इति टिप्पणी ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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