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तृतीय श्राश्वासः
यत्रोक्तमः पुरं त्रिचरणस्पर्शः कान्तावमधूनि वाति पुनस्त्रियं केसरः । चार्य विरह पञ्चमरुचिश्चेतोभवस्फारणः स श्रोणीश वसन्त एव भवसः प्रीति परो पुष्यतु ॥ ४३४ ॥ चूत: कोकिलकामिनीकरवैः कान्तप्रसूनान्वरः पुन्नागः शुकमुन्दरी कृतर तिर्यत्रो एएसपल । पुध्यस्स्मेरदलाधरः कुरुवकः क्रीडद्भिरेफाङ्गनः सुरुद्वायक माधवोपरिचितः सोऽयं बन्सोत्सवः ॥ ४४५॥ उत्फुखवालिबधनोऽसङ्गसङ्गसंजातकान्ततनवस्तरत्रोऽपि यत्र ।
पुष्पोद्रमादिव वदन्ति विष्ठा सिलोकान्मानं विमुष्ष कुरुत स्मरसेवितानि ॥४४६ ॥ या कथं कथमपि प्रगति चेतः शकाः स्वष्टन्न मुनयोऽपि मनो निशेकुम् । यत्र स्मरे स्मयविजृम्भितया वृत्तावृन्मादितत्रिभुवनोद्दरवर्तिलोके ॥ ४४ ॥
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होरहा है। जिसमें हरिण शृङ्ग घर्षणों द्वारा अपनी प्यारी हरिणी के साथ क्रीड़ा कर रहा है एवं जिस प्रस्तुत ऋतु में सिंह, जिसका हृदय का सर ( रागव्याप्ति ) से प्रसन्न होरहा है, बार बार आलिङ्गन या मिलन द्वारा अपनी सिंहिनी प्रिया के साथ काम-क्रीड़ा कर रहा है' || ४४३ || हे पृथिवीनाथ ! वह जगत्प्रसिद्ध और प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली यह वसन्त ऋतु आपका उत्कट इर्ष पुष्ट करे, जिसमें अशोकवृक्ष, जिसकी अभिलापा पुरन्ध्री ( कुटुम्बिनी ) स्त्रियों के पादतान में बढ़ी हुई है। अर्थात् कवि-संसार की मान्यता के अनुसार अशोकवृक्ष बसन्त ऋतु में कामिनियों के चरण-स्पर्श ( पादताइन द्वारा प्रफुल्लित होता है, अतः वह कामिनियों के पादताड़न की बढ़ी हुई इच्छा से व्याप्त होरहा है एवं जिस वसन्त ऋतु में बकुल ( मौलसिरी ) वृक्ष त्रियों के मुख में स्थित हुए मद्य का इच्छुक है। अर्थात् - कधिसंसार में बकुल वृक्ष स्त्रियों के मुख में वर्तमान मा गण्डूषों ( कुरलों) द्वारा विकसित होता है, अतः बकुल वृक्ष स्त्रयों के मद्यमयी कुरलों की अपेक्षा कर रहा है। इसीप्रकार जिस वसन्त ऋतु में यह विरहवृक्ष ( वृक्ष विशेष ), जो कि कामोत्पत्ति द्वारा चित्त को विभ्रम-युक्त करनेवाला हूँ, पञ्चमराग का इच्छुक है। अर्थात् विरह वृक्ष भी पड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पश्चम, धवत और निषाद इन सप्त स्वरों द्वारा गाए जानेवाले सप्त रागों में से पंचम राग द्वारा विकसित होता है, अत: यह पंचम राग का इच्छुक होरहा है" ॥ ४४४ ॥ हे राजन! यह वही वसन्तोत्सव है, जिसमें आम्रवृक्ष, जिसका मध्यभाग कोकिलाओं के कलकल (मधुर) शब्दों से व्याप्त होता हुआ मनोहर पुष्पों से सुशोभित होरहा है । जिसमें पुभाग ( नागकेसर ) वृक्ष, जिसपर तोता - सुन्दरियों (मेनाओं ) द्वारा रवि प्रकट की गई है एवं जिसमें पलन उत्पन्न होरहे हैं। जिस वसन्तोत्सव में कुरबक वृक्ष जिसके पसरूपी बिम्बफल सराखे ओष्ट विकसित ( कुल प्रकट ) होरहे हैं एवं जो क्रीड़ा करती हुई भँवरों की कामिनियों से मरित हुआ सुशोभित होरहा है। इसीप्रकार हे राजन् ! यह वसन्तोत्सव कान्तियुक्त पत्तोंवाली माधवी लताओं ( वसन्त-वेलों ) से संयुक्त है ॥ ४४५ ॥ हे राजन! जिस वसन्तऋतु में ऐसे वृक्ष, जिनके सुन्दर शरीर प्रफुलित लताओं के वेष्टन से उत्कण्टकित या सुशोभित अङ्गों के सङ्ग से भलीप्रकार उत्पन्न हुए हैं, पुष्पों का उम (उत्पत्ति ) होने से ऐसे मालूम पड़ रहे हैं-- मानों - वे कामी पुरुषों को यह सूचित ही कर रहे हैंकि 'आप लोग अभिमान छोड़कर कामसेवन कीजिए" ॥ ४४६ ॥ हे राजन! जिस वसन्त ऋतु में जब कामदेव, जिसने गर्व से बाग-व्यापार विस्तारित किया है और जिसके द्वारा तीन लोक के मध्यवर्ती प्राणी समूह उन्मत्त किये गए हैं, ऐसा शक्तिशाली होजाता है तब जिस बसन्त में ब्रह्मा भी अपना चित्त
१. समुच्चयालङ्कार | २. जाति अलङ्कार । ३. हेतु अलंकार ४. उत्प्रेक्षालंकार ।