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यशस्विलकपम्पूकाव्ये सोव, भावीया दासम्तो नेपथ्यविधिः । भवन्ति पात्र श्लोका :--
कनकामगर्भस्पपिसौन्दर्यसारे युवतिजनविमोदण्यासहंसावतारे। परिसरतु सवाझे कुहुमोदनिक्षीररुणकिरणकान्तिः कायवस्काम्वनाः ॥४४॥ एवं देव दोऽभिगो पामो गोरोपनापिजरिते दुरुले । आभासि नीरजरजोरपायाः श्रिया समान विशापगायाः ॥१४॥ यः श्रीनिरीक्षितसपसरविप्रपत्रः कीर्तिस्वयंवरणपुष्पधाराभिरामः । वावे तब नपापत्ततास्स हारः कैलासदेश इप देवनदीप्रवाहः ॥४५॥ लक्ष्मीलोचनकाजलोचितलवों विद्यावधूचकरलाध्यश्यामगुणे मधुयतकूल छायापहासियुतौ। राखतीमणिप्ररोहसुभगाभासे प्रसूनोश्चयस्वन्मौलावसिताम्बुदान्तरचरबन्दछविः शोभताम् ॥१५१॥ या श्रीकण्ठप्राहणसुभगो वीरलक्ष्मीविलास; कीतिप्रादुर्भवनवससिः कल्पवृक्षावतारः ।
मारोतरण करपल तोऽयं हस्तस्सव विजयता रनभूषाभिरामः ॥४५२॥ महान् कष्ट से रोकता है और ऋषि भी संयम-च्युत होते हुए चित्त को रोकने में समर्थ नहीं। होते ॥४४॥
इसलिए हे राजन् ! आप वसन्त ऋतु के अवसर पर होनेवाला श्राभरण-विधान स्वीकार कीजिए। इस आभरण-विधि के समर्थक निम्नप्रकार श्लोक भी है
हे राजन् ! आपके शरीर पर, जो कि सुवर्ण व कमल के मध्यभाग की सशक्षा धारण करनेवाले सौन्दर्य से श्रेष्ठ है और जिसमें युवती स्त्री-समूद्द संबंधी क्रीडा विस्ताररूप हँस प्रविष्ट होरहा है, काश्मीर की तरल केसर से फोहुई विलेपन-शोभा उसप्रकार विस्तृत हो जिसरकार सुमेरु पर्वत के शरीर पर सूर्य-किरण-कान्ति विस्तृत होती है ।। ४४८ ॥ हे देव ! आप गोरोचना से पीवरक्त किये हुए नवीन दोनों दुकूल (रेशमी शुभ्र धोती व दुपट्टा) शरीर पर धारण करते हुए उसप्रकार सुशोभित होरहे हैं जिसप्रकार कमल-पराग से अव्यक्त लाालमा-शालिनी गंगा सुशोभित होती है ॥४४८।। हे राजन् ! बह जगप्रसिद्ध ऐसा हार ( मुक्तामयी हारयष्टि) आपके वक्षःस्थल पर प्राप्त हो, जिसका कान्ति-विस्तार लक्ष्मी-चितवन को तिरस्कार करनेवाला है और जो उसप्रकार मनोहर है जिसप्रकार कीति की स्वयम्बर-पुष्प-माला मनोहर होती है एवं जो उसप्रकार सुशोभत होरहा है जिसप्रकार कैलाश पर्वत पर स्वगंगा का प्रवाह सुशोभित होता है ॥ ४५ ॥ राजन् ! आपके मस्तक पर, जिसकी योग्य कान्ति लक्ष्मी के नेत्र-कजल सरीखी है और जिसमें विद्याधरी-स्तनों के अप्रभाग-समान प्रशंसनीय श्यामगुण पाया जाता है एवं जिसकी कान्ति श्रमर-काणी को तिरस्कृत करनेवाली है तथा जिसकी मनोझ कान्ति नीलमणियों के अङ्करों सरीखी है, ऐसा पुष्प-समूह शोभायमान होवे, जिसकी कान्ति श्याम मेघ के मध्य में संचार करनेवाले पूर्णमासी के चन्द्रमा-सरीस्त्री हे || ४५२ ।। हे राजन् ! वह जगत्प्रसिद्ध यह रलमयी आभूषणों से मनोज्ञ आपका ऐसा हस्त विजयश्री प्राप्त करे, जो कि लक्ष्मी-(शोभा) युक्त कण्ठ का ग्रहण करने से मनोहर है अथया श्रीकण्ठ ( श्रीमहाय) को स्वीकार करने से मनोहर है। जिसमें बीरलक्ष्मी का विस्तार वर्तमान है। सो कीति-उत्पत्ति की बसति ( गृह ) है एवं जो पाहु-मिप से कल्पवृक्ष है तथा जो पृथिवी-भार उठाने के अवसर पर शेपनाग की दूसरी मूर्ति है ॥ ४५२ ॥
१. अतिशयालंकार । २. सपक व उपमालंकार । ३, उपमालंकार । ४. उपमालंकार । ५. उपमालहार । 1. स्वकालंकार।