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तृतीय आश्वासः
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दो वा श्रीसरस्वत्योः प्रचेतः पाशपेशले । तव भूषयतां भूप भुती माणिक्यकुले ॥४२३॥ भुशिखरे हरिचन्दनलिखिता व पत्रकद्व निर्देच मकरध्वजविजयोस्थित विचित्रकेतुश्रियं धते ॥ ४६४ ॥ सब देव निटिलदेशे चन्दनरसनिर्मित वस्तिलकः । धष्टमीन्दुमध्य स्थितगुरुशोमा प्रतिविम्वमपि वहन्ते यस्थाः शिरसा महीश्वराः सा स्तात्। मुद्रा सब देव करे समुदमुद्राविक्षितीशस्य १४५६ ॥ कामरत्वं रतिसंगमे, सुरपतिः स्वर्गाङ्गजानन्दने, भोगीद्रव भुजङ्गिकागमविधौ, लक्ष्मीप्रमोदे हरिः । याग्देदोनयनोत्पलनेल्सवरसप्राप्तौ सुधावीधितितः संप्रतिभूषणोचितवपुर्भूपालचूडामणे ॥४५७ ॥ तच स्मरमहोत्सवोलासर यश विलासिनीजनोचार्यमाणमगुरु परम्परे ऽन्तःपुरे
नव किसलयपूगी पादपस्तम्भशोमाः सित तरुफलकान्ताशोकप्रियाताः । मणिमोचकान्तास्तव नृपवर दोलाः कुर्वतां कामितानि ॥४६८ ॥
वक्त्रं वक्त्रमुपैति पत्र नयने नेत्रप्रतिस्पर्धिनी वक्षः पीनपयोधर रामकलना सोलासलीलान्तरम् । rent reading लितों जड़े व जाश्रिते दोलान्दोलनमार्पतभरं तरकस्य न प्रीस ॥ ४५९॥
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हे राजन! रत्नमयी दोनों कुण्डल आपके दोनों पों को, जो लक्ष्मी सरस्वती के झूलों सरीखे हैं और जो उसप्रकार मनोहर है जिसप्रकार वरुणपाश (जाल) मनोज्ञ होता है, मण्डित ( विभूषित) कर रहे हैं' ||४५३|| हे राजन्! आपकी दोनों भुजाओं ( बाहुओं) के अंश पर सर्वोत्तम चन्दन से लिखी हुई पत्त्रवेलि पक्ति पत्तों की लता श्रेणीरूप चित्ररचना ) उसप्रकार की शोभा धारण कर रही है जिसप्रकार जगत के वशीकरण-निमित्त उत्पन्न हुई अनेक वर्णोंवाली कामदेव की ध्वजा शोभा धारण करती है ||४५४ || हे देव ! आपके ललाटपट्टक- प्रदेश पर वर्तमान चन्दनरस निर्मित कान्ति से व्याप्त हुआ तिलक अष्टमी-चन्द्र के मध्य में स्थित हुए बृहस्पति की लक्ष्मी का आश्रय करनेवाली लक्ष्मी ( शोभा ) धारण कर रहा है ॥ ४५५|| हे देव! समुद्र की मुद्रा से राजाओं को अति ( चिह्नित करनेवाले आपके हाथ में वह मुद्रा (मुद्रिका), जिसका प्रतिचिमात्र भी राजा लोग मस्तक से धारण करते हैं [ आभूषणरूप हुई ] शोभायमान होवे " ।।४५६|| हे समस्त राजाओं के शिरोरत्न ! ऐसे आप इस समय आभूषणों से विभूषित हुए शरीर से व्याप्त होरहे हैं जो कि रति के साथ संगम करने के लिए कामदेव हैं स्वर्ग की अनाओं ( देषियों ) को उसित करने के हेतु इन्द्र हैं एवं आप उस प्रकार भुजत्रिकाओं ( कामपीडित स्त्रियों) की आगमविभि ( आकर्षण - विश्वान ) के हेतु भोगोन्द्र ( कामदेव ) हैं जिसप्रकार भुजनियों (नागकन्याओं) का चित्त आह्लादित करने के निमित्त भोगीन्द्र ( शेषनाग ) होता है । इसीप्रकार लक्ष्मी का हर्ष उत्पन्न करने के लिए श्रीकृष्ण हैं तथा सरस्वती के नेत्ररूप कुमुदों को आनन्दरस-प्राप्ति हेतु ( विकसित करने हेतु ) चन्द्र है ||४५७|| देव ? इस प्रदेश पर वर्तमान ऐसे अन्तःपुर में, जहाँपर काम महोत्सव से उत्पन्न हुए आनन्दरस के अधीन बिलासिनी - ( वेश्या) समूह द्वारा मङ्गलश्रेणियाँ पढ़ी ( गाई ) जारही हैं,
[[ ] हुए ] ऐसे झूले आपके मनोरथ पूर्ण करें, जिनमें नवीन कोंपलोंवाले सुपारी वृद्धों की स्तम्भशोभा वर्तमान है। जिनकी रज्जु -(रस्सी) बन्धन - रचना ऐसी अशोकवृक्ष लताओं से हुई है, जिनके प्रान्तभागों पर कर्पूर वृक्ष फलक (पटल ) पाए जाते हैं। इसीप्रकार जो रत्न पुष्पों से मण्डित रेशमी समयी देवों की वजाओं से विशेष मनोहर हैं ||१५|| हे राजन् । वह जगत्प्रसिद्ध ऐसा झूले से भूलना किस पुरुष को हर्षजनक नहीं है ? अपितु सभी के लिए हर्षजनक है, जिसमें कमनीय कामिनियों द्वारा अतिशय (विशेषता)
* 'मणिमुकुटकूलो' ० १. उपमालङ्कार | २. उपमालङ्कार ३. जपमालंकार ४. अतिशयालङ्कार । ५. रूपकालंकार । ६. समुच्चयालङ्कारः ।