SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम आवास ३१ हिम पहिलाकुरित कुटहारिकाकुन्तलकलापे, मृगयूथरोमन्धसामर्थ्यदथिमि, प्रावेल मुक्ताफलित करडिरिपुरोमभागे, मजपालविलासिनी कपोलविधु वैशधरा तिनि, हलाजी वजायापदशलावण्यलोपिनि, बनेश्वरवमिताभ र दलका सिकशिनि, मुनिकामिनीफरकिसल्यकृततरङ्गस, द्विजकण्ठकुण्डला विधायिनि विप्रलन्धपुरन्ध्रीस्तनभारज निसजानुसंबाधे, कुचकुइरोपसर्पणरतपोखेक्सि सवसि विश्वम्भोरुभूषण मिळावे, सहसुप्तमिथुना किनादेशिनि निरन्तरमुस्सन्तीभिः करतरूपरामर्शसुखविकोपनचीभिरिव सदरामप्रियातिथिति दुर्विधकुटुम्बेषु जरस्कश्चापटचराणि मयत पथिकेषु पाणिपलदानि, निरवयति दयितोसितमनुसरन्तीनामभिसारिकाणामरूपक्ष्मा स्वारासारश्री कलिस शौकेिमशुक्तिपुटस्पर्धीनि विलोचनानि, संधानयति सा एलीना भूरूपये सपाट पटकारिषु बृहद्रा हयालुताम्, जिसमें हिम-बिन्दुओं द्वारा जल-पूर्ण घटों की धारक दासियों के केशपाशों की श्रेणी पलित (सफेद) बालाकुरों से व्याप्त की गई है। जो हिरण-समूह की रोथाँने की शक्ति को पीड़ित करने वाली है। जहाँ पर सिंहों का स्कन्धकेसर स्थान हिम-बिन्दु-समूह द्वारा मोतियों से व्याप्त किया गया है । जो गोकुल सम्बन्धी ग्वालों को गोपियों के गाल रूप चन्द्रमाओं की उज्वलता नष्ट करती है। जो कृषकों की कामिनियों के चरणकमलों का लावण्य नष्ट करनेवाली है। जो भीलों की कामिनियों के श्रेष्ठ रूप पत्तों की कान्ति को कृश करने वाली है। जिसने प्राम्य तापलों की कामिनियों— उपस्थिनियों के हस्त पक्षों पर वरन सनम किया है। जो ब्राह्मणों के गलों को छुटता युक्त --- शक्तिदीन- करनेवाली है । जिसने वियोगिनी स्त्रियों के कुचकलशों के भार से उनके जानुत्रों-घुटनों को कष्ट उत्पन्न किया है। जिसमें बालबचोंवाली स्त्रियों का मन ऐसे शिशुओं द्वारा वेद- खिन्न किया गया है, जो ( दुग्धपान करने के हेतु ) उनके स्तनों के मध्य प्रवेश करने में अनुरक्त है। जिसमें अधिक ठंड के कारण कमनीय कामिनियों द्वारा आभूषणों के धारण करने की प्रीति रोक दीगई है । जो एक शय्या पर सोनेवाले स्त्री पुरुषों के जोड़ों के लिए गाढ़ आलिङ्गन करने का आदेश करने वाली है। जो भीलों की स्त्रियों के स्तन युगलों पर निरन्तर प्रकट होने वाली ऐसी सेमावराजियों को उत्पन्न करके उसे ( कुच-मण्डल को ) कण्टकित करती है, जो कि हस्ततल के स्पर्शमात्र से उसप्रकार सुख नष्ट करती हैं जिसप्रकार छत के स्पर्श से चुभी गई सूचियाँ (सुईयाँ ) सुख नष्ट करती हैं या दुःख देती हैं। ओ दरिद्र मनुष्यों के कुटुम्बियों की कथड़ी व जीर्ण वस्त्र फाड़ती है। जो पान्थों के हस्तपल्लव कम्पित करती है। जो प्रियके गृह में प्राप्त होनेवाली अभिसारिका' – प्रिय को प्रयोजन सिद्धि के लिए संकेत स्थान को जानेवाली - स्त्रियों के तिरछे नेत्र रोगों के अम भागों में स्थित हिम बिन्दुओं के समूह द्वारा उनके नेत्रों को इसप्रकार मनोश प्रतीत होनेवाले करती है जिसप्रकार ऐसे सीपों के फुट जिनके प्रान्त में मोतियाँ स्थित हैं, शोभायमान होते हैं। अग्नियों में लालसा वा श्रद्धा विस्तारित करती है, जो कि अधाओं से श्वेत रक्त चिन्हों को उत्पन्न करने वाली हैं। * तथाच श्रुतसागराचार्य: जो तपस्वियों की स्त्रियों को ऐसी लेकर समस्त कामोद्दीपकों में :--यस्य वूर्ती प्रियः प्रेष्य दत्वा संकेतमेव वा । कुतवित्कारणान्नेति विप्रलब्धात्र सा स्मृता ॥१॥ यशस्तिलक की संस्कृत टीका पृष्ठ ५७ से संकलित अर्थात - जिसका प्रिय वली भेजकर अथवा स्वयं संकेत देकर के भी किसी कारणवश उसके पास नहीं भाता, उसे विप्रलब्धावियोगिनी - नायिका कहते हैं । १. तथा च श्रुतसागराचार्य : कान्तार्थिनी तु या याति संकेत साभिसारिका । संस्कृत टीका पू. ५८ से संकलित
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy