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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
ध्यानयति पवर्णय मनोहराणि गर्भरूपपनेषु पच्याच्चानि, मन्दति च प्ररोचिषोऽपि तेजः स्फुरितिमानम् । अपि च यत्राविशिशिरभरात
कान्ते काककुटुम्बिनी न कुरुते प्राप्तेऽपि चाटुक्रियां | हंसपुदान्तरात्रि कतिष्टति ॥ कृत्कुचरस्तवतिसवयः पांसुः पुनः शीर्यते । भर्तृणां प्रायनं न मुञ्चति परं कोऽपि योषिज्वनः ॥ ६३॥ सिंहः संनिहिते सति गजे शीर्यत्क्रमस्वन्तो । मध्याऽपि न जातराध्यकवलः प्रायः कुरङ्गीपतिः । यत्सः कुण्ठितकण्ठनालवलन: पातुं न शक्तः स्तः । वक्त्रं नैत विभावकर्मकरणे पाणामपि ॥ ६४ ॥ एः स्तम्यतरूप्ररूढ विरसप्रागाणां रतिः क्षोणी धूल के व्याप विकिरत्यक्ताः प्रभावागमे । कोकः शुल्कएाजारचरणन्यासः त्रिषां वीक्षते व प्रान्तविधुनि च कम हंसः पदं न्यस्यति ॥ ५० ॥ सडेदात् खरं खिद्यते भूमिश्वस्तकरा करेणुरवशक्षीरस्ती सम्पति ।
हंसी
जो गर्भस्थ शिशुओं के मुखों से ऐसे ढोल या नगाड़े बजवाती है, जो प प प इसप्रकार आर-बार मनुष्यों के लय ( साम्य) को प्रकट करने के कारण चित्त को अनुराअत करते हैं । इसीप्रकार जो अत्यधिक ठंड के कारण सूर्य के भी प्रकाश सम्बन्धी स्फुरण को मन्द करती है ।
जिस शीतऋतु में विशेष शांत वश चकवी अपने पति - चकवा - के आजाने पर भी प्रातः काल होने पर भी - उसकी मिथ्या स्तुति नहीं करती। इसीप्रकार हंस, जिसके चञ्चुपुट (चोंच ) के मध्यभाग से शैवाल गिर रहा है, ऐसा हुआ स्थित है । अर्थात् अधिक शीत के कारण शवाल चबाने में भी समर्थ नहीं है । जहाँ पर हाथी ने सूँड द्वारा जिसकी राशि की है ऐसी धूलि बड़ी कठिनाई से नाचे गिरती है । अर्धान- उसकी सूँड़ पर लगी हुई धूलि नीचे नहीं गिरती । जिसमें विशेष ठण्ड के कारण खियाँ पतियों की शय्या उनके अत्यन्त कुपित होने पर भी नहीं छोड़तीं ॥ ५३|| जिसमें अत्यन्त ठंड के कारण शेर, जिसके पंजों का स्पन्दन - चलना व्यापारशून्य होगया है हाथी के समीपवर्ती रहने पर भी भूखा रहकर कष्ट उठाता है। अर्थात् उसे मारकर नहीं खाता। जहाँ पर अत्यधिक ठण्ड के कारण कृष्णसार मृग, मध्याह्न हो जाने पर भी प्रायः छोटे-छोटे तृणों को ग्रास करनेवाला नहीं रहता । जहाँ पर बछड़ा जिसके गले के नाल की झुकने की चेष्टा कुण्ठित — मन्द क्रियावाजी — होचुकी है, स्तनपान करने समर्थ नहीं है । एवं जहाँपर विशेष शीत पड़ने से ब्राह्मणों का भी इस्त प्रातःकालीन क्रिया काण्ड सन्ध्या-वन्दन व आचमनादि-करते समय मुँह की ओर नहीं जाता ||५४|| जिस शीतऋतु में विशेष शीत-वश हिरणों का अनुराग ( चबाना ) धान्यादि के प्रकाण्ड ( जब से लेकर शाखातक का पौधा प्रदेशों में उत्पन्न हुए नीरसप्राय पत्तों से होता है । अर्थात् जिस शीतऋतु में अत्यधिक शीत- पीड़ित होने के I कारण हिरणों में अपने मुख के संचालन करने की शक्ति नहीं होती इसलिए वे स्तम्बचर्षण करने में असमर्थ हुए नीरस पत्तों को ही चढाते हैं। इसी प्रकार जिस शीतऋतु के आने पर चटका दे पक्षियों द्वारा सूर्योदय के समय पृथिवी पर लोटने की क्रीडाएँ छोड़ दी गई हैं। एवं जहाँ पर चकवा शुष्क मृणालसमूह पर अपने चरण स्थापन करता हुआ अपनी प्रिया - धकवी - की ओर देखता है । एवं जहाँपर इस मुख की चोंच के अग्रभाग द्वारा कम्पित किये हुए कमल पर पैर स्थापित करता है || ५|| जिस शीत ऋतु के अवसर पर विशेष शीत पड़ने से हंसी अपने मुख के मध्य में हंस द्वारा अर्पण किये हुए कमलिनीकन्य के खंड से अत्यन्त दुःखी हो रही है । क्योंकि वह विशेष ठंड के कारण उसको चबाने में असमर्थ होती है । ) १. दीपकालंकार ।
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दीपकालंकार | ३.
दीपकालंकार |