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प्रथमं श्राश्वासं
प्रातडिम्भविचेष्टितुण्डमानी हार काहाम मे हस्तभ्यस्तफलहवा च शब्दी बाष्पातुरं रोदिति ॥१६॥ सारि करिणो गृह्णन्ति रोघः स्थिता जिह्नमनाएमेसिन पयः सिंहे कृष्णेऽपि च । एणानामधराभ्वराललुलियास्त्रिष्टति पाथःकणाः पूर्वोत्खास विशुष्क पत्रलगतः पोत्री व मुस्वाशनः ॥ २७ ॥ क्रि व शून्याः परैः कररुद्द रमणीरूपोला ः कान्ताधरा न शनक्षतकान्तिमाज: । स्वच्छन्दकेलिषु स्ता बनिया न यत्र काले परं जनितमगे ॥ ६८ ॥ पत्र । लीच्छाविलास विरतैर्नयनासिवान्नैः स्पर्शासुखावर दलैर्वश्नार विन्दैः ।
रोमाञ्चकण्टकित कुकुड्मलैश्च श्रीभिः साः सुकृतिनः सुरते सतेशः ॥६९॥
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यत्रानवरसमन्तः प्रवर्धमानध्यानधैर्य धनंजयावधूत हिमसमयप्रत्यूहष्यूहस्यातिनिन्दा तसौ मध्यसमध्यासिन हव स्थि गायिनो हेमन्ते विहितविर हिनदुर्लभ विभातसमागमाः सुखेन विभान्ति विभावर्यः । rer च दादातिप्रापासजहाँपर हथिनी, जिसने अपना शुण्डाईड ( सैंड ) पृथिवी पर गिरा दिया है और जिसके दुग्ध-पूर्ण स्तन ठंड के कारण पराधीन हो चुके हैं, अर्थात् — उसका बच्चा शीत-पीड़ित होने के कारण उसका स्तनपान नहीं कर सकता, दुःखी हो रही है। इसी प्रकार के आने पर भी सवेरे अपने व मुख को पसरने की क्रिया — खाने की क्रिया - से शून्य जानकर अर्थात् - इसका मुख प्रास भक्षण करने में तत्पर नहीं है, अतः उसे मरा हुआ समझकर अपने हाथ में द्राक्षादि फलों का रस धारण करती हुई
पात के कष्ट पूर्वक रुदन करती है ||५६ || जिस शीतऋतु में विशेष ठण्ड के कारण हाथी मध्याह्नबेला में भी नदी आदि जलाशयों के तटों पर स्थित हुए तरों का पानी पीते हैं। एवं सिंह प्यासा होने पर भी पानी उसकी जिहा के अप्रभाग से गले की नाल ( छिद्र ) में प्रविष्ट नहीं होता । अर्थात्जिला के प्रभाग में ही स्थित रहता है। इसीप्रकार जलबिन्दु हिरणों के घोष्ठ के मध्य में ही स्थित रहते हैं, कष्ठ के नीचे नहीं जाते । इसीप्रकार जंगली बराह पहिले स्त्रीखों द्वारा खोदी हुई सूखी छोटी तलैया में स्थित हुआ नागरमोथा चवाता है ॥५७॥ विशेष यह कि जिस ऋतु में रमशियों के गाल नख-चिन्हों -- नखक्षतों से शून्य हैं, एवं खियों के ओष्ठ दन्त-क्षतों की कान्ति ( रक्तवा रूप शोभा ) के धारक नहीं है और जिसमें उल्लास उत्पन्न करानेवाली कामिनियाँ यथेष्ट क्रीड़ा करने में अनुरक्त नहीं हैं। केवल प्रस्तुत शीतऋतु काश्मीर की केसर-कदम में ही प्रीति उत्पन्न कराती है, क्योंकि केसर उष्ण होती है ॥५८॥ जिस शीत ऋतु में कमनीय कामिनियों ने संभोग क्रीड़ा के अवसर पर पुण्यवान् पुरुषों को लीला बिलास ( प्रफुल्लित होना आदि ) से विरल नेत्ररूप नीलकमलों द्वारा और जिनके ओंठ दल शीत व कठोर होने के कारण दुःखजनक हैं ऐसे मुखकमलों द्वारा तथा जिनके तट प्रकटित रोमानों से फण्टकित हैं ऐसी कुक्षियों ( रसन-कालयों ) द्वारा सुख के अवसर पर खेद - विन्न किया है ॥५६ कैसे हैं सुदत्ताचार्य ? जिन्होंने चित्त में बढ़ते हुए धर्मध्यान की निश्चलतारूप अभिद्वारा शीतकालसंबंधी विवाधाओं के समूह को नष्ट कर दिया है और जो शीतऋतु में भी कठोर जमीन पर उसप्रकार शयन करते हैं जिसप्रकार शीतर हित राज-महल मध्य में राजकुमार शयन करता है। कैसी हैं वे शीतकालीन रात्रियों ? जिनमें वियोगी पुरुषों को प्रातःकाल का समागम दुर्लभ किया गया है। इसीप्रकार श्रीष्म ऋतु के दिनों में भी जब भगवान् । सम्पूर्ण ऐश्वर्यशाली ) सूर्य अपनी ऐसी किरणों द्वारा समस्त पृथ्वीमण्डल के रस कवलन - भक्षण करने के लिए उद्यत तत्पर-था अतः ऐसा प्रतीत होता था मानों प्रलयकाल से उद्दीपित जठरपाली प्रलयकालीन अनि ही है, तब ऐसे सुदन्ताचार्य की मध्याह्न वेलाएँ सुखपूर्वक व्यतीत होती १. दीपकालंकार | २. दीपकालंकार ३. हेतु - अलंकार | ४. हेतु अलंकार ।