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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
स्तनोपल शिविर लस्फुलिङ्गसङ्गत पितस्थल लज राजिभिस्तस्मूल विद्यार्ध विनिर्गताशीविषविषधरवदनोद्गीर्णगाडगरखानकाखाकाशएप्रकाशमसरोवर इद इनका मान महिला श्वासानि पुनरुको बम्धेर पाजिस जगतज्योतिःसारैरिव का मानिक गर्भनिर्भरैरित्र च करैश्चिरविसर्ग समयसंधुषितजरुर जातवेदसीव सकलानपि रसान् प्रसितुमत्रसिते भगवति गभस्तिमादिनि, परागप्रसरभूसरित समर तदिगन्तराष्टाभिर्वा लघुसिभिर्जगतो अनिताइहारे परिसर्पति समन्तान्नद इत्र सर्वकष महति भुविदिनि दिशि विदिशि च वैश्वानरसृध्य इव दृष्टिपथमत्रतरति विष्वदी चिलोके, विनिर्मितमु रोपहारास्थित्र दुःस्पर्शप्राry सर्वतः शर्करारिला विरोचन चूर्ण की सचित्र नपसूमाथितातिथिषु पधिषु
थीं। कैसे हैं सुदत्ताचार्य ? जिन्होंने धर्मध्यान करने के उद्देश्य से सूर्य के समीपवर्ती शिखरवाले ऊँचे पर्वत की शिखर पर आरूढ़ होकर अपनी दोनों भुजलताएँ लम्बायमान की हैं। जिन्होंने अपने प्रताप द्वारा सूर्यविम्व को केशित करनेवाला मुखमण्डल सूर्य के सम्मुख प्रेरित किया है । जिन्होंने वित्त संबंध को करनेवाली - श्रचिन्तनीय - तपश्चर्या द्वारा समस्त देव - विद्याधर- समूह को आश्चर्य उत्पन्न कराया है । जिनका शरीर ऐसे आत्म ध्यान से उत्पन्न हुए शाश्वत् सुख के प्रवाहरूप अमृतसमुद्र से स्नान कराया गया था, जिसमें परिपूर्ण धर्मध्यान व शुक्लध्यान रूप पूर्णमासी के चन्द्रोदय से ज्वार-भाटा आरहा धा वृद्धिंगत हो रहा था और फिर शरीर के भीतर न समा सकने के कारण मानों - निषिद्ध स्वेदन के मिष ( बहाने से शरीर से बाहर निकल रहा था। इसीप्रकार जो ऋषिराज सुदसाचार्य शाश्वत सुख-समुद्र में स्नान करने के कारण ऐसे प्रतीत होते थे मानों— मेघवर्षा के मन्दिर - विशाल फुल्दारों के गृह के समीप ही प्राप्त हुए हैं। कैसी हैं वे सूर्यकी किरणें ? जिनकी उष्णता
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प्रकाश वन की दावानल अग्नि के प्रज्वलित होने से द्विगुणित होगया है । जिनके द्वारा स्थलकमलों की श्रेणियों (समूह) इसलिए विशेष सन्तापित की गई थीं, क्योंकि इन किरणों में सूर्यकान्त मणिमयी पर्वतों की शिलाओं के अग्रभागों से उचटते हुए अग्निकों का सङ्गम होगया था। जिनके प्रकाश का विस्तार इसलिए विशेष भयानक था, क्योंकि उसमें वृक्षों की जड़ों में वर्तमान बिलबिद्रों से आधे निकले हुए विष सर्पों के मुख से उगली गई तीव्रषि संबंधी अग्नि ज्वालाओं का सङ्गम या मिश्रण था । जिनकी उष्णताबन्ध विरह रूप अग्नि द्वारा भस्म की जानेवाली ( वियोगिनी) कमनीय कामिनियों की (उष्ण ) श्वास वायु द्वारा द्विगुणित किया गया है। जो तीन लोक के समूह सम्बन्धी प्रकाशतत्वको स्वीकार की हुई सरीखी और अग्निकणों को गर्भ में धारण करने से अतितीव्र सरीखीं शोभायमान होती थीं। जब सर्वत्र ऐसी (उष्ण ) वायु का संचार हो रहा था तब प्रस्तुत आचार्य की श्रीष्मकालीन मध्याहवेलाएँ सुख पूर्वक व्यतीत होती थीं। कैसी है वायु ? जिसने धूलि के प्रसार ( उड़ाना ) द्वारा समस्त दिशाओं के मंगलको धूसरित — कुछ उज्वल करनेवाली वायुमंडल की वृत्तियों (प्रवृत्तियों अथवा पक्षान्तर में क़ौशिकी, सात्त्वती, आरभटी व भारती इन चार प्रकार की वृत्तियों) द्वारा समस्त लोक के शारीरिक अङ्गों का उसप्रकार विशेष (संचालन या शोषण) किया है जिसप्रकार नट (नृत्य करने में प्रवीण पुरुष) अपने शारीरिक अङ्ग का विशेष (संचालन) करता है। और जो उष्णता वश समस्त जगत को सन्तापित करती है— पत्थरों को भी उष्ण मनाती है। फिर क्या होने पर मध्याह्न वेलाएँ व्यतीत होतीं थी ? जब समस्त जगत नेत्र मार्ग में प्राप्त दृष्टि गोचर हो रहा था तब ऐसा प्रतीत होता था मानों उसकी पृथिवी, आकाश, दिशाओं ( पूर्व-पश्चिमादि ) व विदिशाओं ( आग्नेय व नैऋत्यकोण आदि) में अग्नि की रचनाएँ दी हुई हैं । एवं जय रेवीली भूमियाँ सर्वत्र दुःस्पर्श--- दुःख से भी प्रचार करने के लिये अशक्य - संचार वाली हुई तब ऐसी प्रतीत • होती थीं- मानों उन्होंने उष्ण अग्नियों की पूजाओं को ही उत्पन्न किया है। इसीप्रकार जब मार्ग, जिनमें नखों को पकानेवाली धूलियों द्वारा पाग्य – रस्तागीर - क्लेशित किये गये थे तब ऐसे ज्ञात होते थे