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________________ प्रथम आवास प्यमानभूपापिरोयत्र शिवासिडिलवतापकरेषु सौधविवरेषु, प्रलयकालपारपासभीवास्त्रिव पातालमूलनिलीयमानतनुशतास लेलिहानवनिसाम, समाचरितपञ्चाग्निसाधनमानसानामिव महीधरतापसानां प्रवृद्धमूर्धनिममध्यामनु गगनतलेषु, द्रुतरखरेश्वारुचिभिरिव मरुमरीचित्रीचिभिर्वव्यमानमनोव्याकुलेषु कमलकुलेषु, धारणिधनधागारासारभूगोलस्पर्शप्रकुपितेनार्ध्वस्तिमा दन्दशूकेश्वरेणापाइनिश्चतैः कोपशानुभिरिव क्वध्यमानास जनादेवतानामावसथसस्सी मिळनिवासकाननदवोद्रिक्तपित्तास्थिव दुःसहविवाहदेहसंदोहामु वनदेवीपु, विवरितबसन्तसमागमास्वित्र रिहिणीकपोलमर्म सतावनपक्तिय, तणवर्मकस्सिा पाण्डप परामपंप, स्वकीयकोशकारमतानां कलहंसकम्बिनीनां चिन्ता ज्यस्करेषु, क्षयामयमन्देष्विव परिम्लायत्सु देधिकेयकान्तारेषु, करेणुकरोत्तम्भिसकमलिनीदलासपोपचर्यमाणधारणधु बनसाःएसष्टोत्पादितपुरकिनीदरम्हविरादानु कासारवसुन्धराम, कठाराठीकएकमलनिर्लोटलुइस्पाठीनक्षोभकलुपबारिषु मानों-अग्नि के प्रज्वलित इंधन-समूह से ही व्याप्त है। जब महलों के मध्य भाग, जो उनमें निवास करने वाले भोगी पुरुषों को सन्तापित करते थे तब ये ऐसे प्रतीत होते थे-मानों-अग्नि में तपार जानेवाले मूसाओं-सुवर्ण गलाने के पात्रों ( घरियाओं ) के मध्यभाग ही हैं। जब सपिणियाँ, जिन्होंने विशेष गर्मी-वश अपनी शरीर-लताएँ अधोभाग में प्रविष्ट की थी तब दे देसी प्रतीत होरही थी-मानों-प्रलयकालीन बसाग्नि-पात से ही भयभीत हुई है। इसोप्रकार जब आकाशमण्डल पर्चतरूप तापसियों केजो ऐसे प्रतीत होते थे-मानों-जिन्होंने अपनी चित्तवृत्ति पश्चाग्नि साधन में प्रवृत्त की है, मस्तकों पर वर्तमान वृद्धिंगत वापधूम से मलिन हो गए थे। इसीप्रकार जच हिरणों के झुण्ड विशेष उण्णतावश जिन मन मृगतृष्णारूप तरङ्गों से, जो पिघली हुई चाँदी के रस की रेखा-सी शोभायमान होती थीं, धोखा खाया गया था, जिसके फलस्वरूप वे व्याकुलित---कि फर्मव्य विमूढ़ हो गए थे। एवं उब जलदेषियों के गृहसरोवर ऐसे मालूम होते थे-मानों-वे ऐसे शेषनाग द्वारा कटाक्षों से प्रकट की हुई क्रोधाग्नियों द्वारा सन्तापित-गर्म किये जा रहे थे, जो कि सूर्य के तीव्रतर आतपरूप अङ्गार-वर्षण से संताप को प्राप्त हुए भूमिपिण्ड के स्पर्श से विशेष कुपित हो गया था और इसीलिए जिसने अपने दो हजार नेत्र ऊपर की ओर संचालित-प्रेरित किये थे । जब यनदेवियों, जिनके शरीर-समूहों को असहनीय सन्ताप होरहा था ऐसा प्रतीत होरही थीं-मानों-अपने गृह के वनों में धधकती हुई दावानल अग्नि के द्वारा जिनकी आयुष्य नष्ट होचुकी है। इसीप्रकार लताओं से सुशोभित बन-श्रेणियाँ उसप्रकार शुष्कपत्तोंवाली हो चुकी थी जिसप्रकार विरहिणीपति से वियोग को प्राप्त हुई - स्त्रियों के गाल शुष्क--ग्लान-पड़ जाते हैं। इसलिए बैसी शोभायमान होती थी जिन्हें वसन्त ऋतु का समागम बहुत काल से दूर चला गया है-नहीं हुआ है। एवं वृक्ष कुछ पीले और सफेद पत्तों के कारण पाण्डु रंग वाले होरहे थे, इसलिए अग्नि में प्रवेश करके बाहर निकले हुए सरीखे शोभायमान हो रहे थे। एवं विशेष गर्मी के कारण चारों तरफ से शुष्क होरहे कमलों के वन ऐसे मालूम होते थे मानों-क्षय रोग से ही क्षीण होगये हैं और शक हो जाने के कारण वे उन राजहरि घर उत्पन्न करते हैं, जिनके बच्चे कमलों के मध्यभाग की कोटरों में उत्पन्न हुए हैं। इसीप्रकार जब बगीचों व अटषियों के तालाब. जिनमें हथिनियों द्वारा शुण्डादंडों-सूडों से उत्थापिठ किये हुए कालिनी-पचों के छत्तों से हाथियों की सेवा की जारही है--उन्हें छाया में प्राप्त किया जारहा है। एवं अब सरोवर-भूमियाँ, जिनपर ऐसे जंगली सुअर वर्तमान हैं, जो अपनी वलिष्ट दाद द्वारा उखाड़ी हुई कमलिनियों के मध्यभागों पर पर्यटन कर रहे हैं। एवं जब तालाब, जिनके जल वस-समान कठोर मध्यभागवाले पृष्ठों (पीठों) से शोभायमान कछुओं के निर्लोठन-संचार-के कारण यहाँ वहाँ जल में लोट पोट होने वाले मच्छों के संगर के कारण कलुषित-हो गये हैं। प्रारूप
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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