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________________ गाविसकापूलव्ये परमातीविरपि महाभागरितः, अकठिनत्तिरपि समास्तमाः, मन्यास्पदपोऽपि नियमितकरणमामः, उफ्याश्चतस्तपस्तपल, सुदीचयः समामृतनिरशेतस्थ, मानसप्रदेश: सरस्वतीदारवायाः, प्रभवपर्वतः प्रशममम्माकिनीप्रवाहस्य, सविध सौजन्यारीजस्थ, दाहरणं गम्भीरतापाः, निदर्शनमौदार्यस्थ, प्रसूतिरुधानं महिम्नः, प्रत्यादेशोऽभिध्यायाः, सिविल, मानावविश्व सर्वगुकानीनाम् । सर सरसत्संचरणसंकोचिनि, शिशिरकण्मयरीजामाविममाणानिलकुळे, स म्पथरवेप. अस्मारिति, विसरमादेशकशनचीके, विषमूलकोटरकुटोसंकुचिमाल्गर्दपरिषदि, जो अशुद्धनयनीतिरपि ( नीति-विरुद्ध असत् प्रवृत्ति में तत्पर होकर के भी) महाभागचरित (पुण्यवानों) सरीखे चरित्रशाली ये। यह भी असगास प्रसीत होता है, क्योंकि नीतिविरुद्ध असत् प्रवृत्ति भनेवाला पुण्यधानों सरीखा चरित्रशाली किस प्रकार हो सकता है? इसच समाधान यह है कि जो अशुद्धनीति (अशुवनय-परसंपर्कषश पदार्थ को अशुद्ध करने पाणी पशुखमय में प्रवृत्त होते हुए) निश्चय से यो महाभागचारेत (महान् प्रमशरूप चरित्र के धारक) थे। इसी प्रकार जो अकठिनवृत्तिरपि ( कोमल प्रकृति-युक्त हो सके भी) क्षमा स्वभाव (पृथिवी-सरीखी प्रकृति शाली-कठोर) थे। उक्त पात भी विस्तू है। मोकिमत प्रकृतिवाला मानव कठोर प्रकृति-युक्त किस प्रकार हो सकता है। इसका समाधान यह है किजो अकठिन चि, अर्थात् जिसकी आहारवृत्ति निर्दयता-शून्य है ऐसे होते हुए जो निश्चय से जमा स्वभाव (तचमक्षमा धर्म के धारक) थे। भावार्थ-जिस सुदत्ताचार्य की गोचरी व भ्रामरी-मादि नामवाली जीविका (आहार ) गृहस्यों को पीड़ा पहुँचानेवाली नहीं थी और जो निश्चय से समस्त प्राणियों में स्मा-धर्म के धारक थे। जो अन्यालहृदयोऽपि (कण्ठ पर सर्प का धारक शक्कर-न हो करके भी) नियमित-करण पाम जिसने त्रिपुर-दाह के अवसर पर अपने करण --सैन्य संबन्धी देवताओं का गण व शरीर-स्थित प्राम नियमित-बद्ध किये हैं,) हे अर्थात् जो त्रिपुरदाह-सहित है। यह कथन भी असङ्गस प्रतीत होता है क्योंकि रुद्र-शून्य व्यक्ति का त्रिपुरदाह असंगत है। इसका समाधान यह है कि जो अव्याख हृदय (अदुष्ट चित्तशाली) होते हुये निश्चय से नियमिव - करणाम है। अर्थात्-जिसने अपना इन्द्रिय समूह नियमित-वशीभूत किया है। अभिप्राय यह है कि जो सुदस श्री शुद्ध हृदय होते हुए तिलिव इसी प्रकार जो सृषिराज सुदच श्री तपोरूपी सूर्य के उदित करने के हेतु उद्याचल, दयारूप असतारण हेतु कार्तिक मास संबन्धी पूर्णमासो का चन्द्र सरस्वतीरूपी राजहंसी के निवास हेतु मानसरोवर एवं शान्तिरूप गला के प्रवाह हेतु हिमालय तथा सजनसारूप बीज के उत्पत्ति क्षेत्र हैं। इसी प्रकार जो गम्भीरता व उदारता का उदाहरण, माहात्य की जन्मभूमि एवं अभिध्या (विषयाकारमा व पदव्यस्पृहा) का निराकरण तथा धैर्य की निधि होते हुए समस्त गुण रूप मणियों की खानि । जिस पूज्य सुदनाचार्य की गत्रियों ऐसी हेमन्त (शीच ) ऋतु में सुख पूर्वक व्यतीत होती थी। यो (हेमन्त ऋतु) समस्त प्रणियों के पर्यटन का संकोच करती है। जिसमें पाले के जल विन्दुओं की मजार-भोपी को तिरस्कृत करनेवाला-उससे भी अत्यधिक ठण्डा-वायुमण्डल वह रहा है। जो विश्व के समस्त प्राषि-समूह की चीत्रवेदना और कम्पन को वृद्धिंगत करने वाली है। जिसमें पराधीन पथिकों दन्तपतरूप वीणा नीरस शब्द कर रही है। जिसमें, कोटर ( जीर्ण-वृक्ष की खोह ) की बॉमी-मल रूम कुटी -एक खम्भे वाला वस्रगृह ( तम्बू) में सर्पसमूह सिकुड़ा हुआ है। १. विरोधामाट-अलहार। २. समुचयालंकार । । - -
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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