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________________ प्रथम आश्वास लोम्यासतगुणधर्मधरः, अकिंचनोऽपि रत्नप्रनिवासः, अविभूभाऽपि सुवर्णालंकारः, अविषमलोचमोऽपि संपन्नो गाऽपि सुदर्शनविराजितः, असगस्टहोऽपि जातरूपप्रिया, K किया था। क्योंकि शिवजी द्वारा भरम किया हुआ कामदेव पुनरुज्जीवित होगया था, कि प्रस्तुत प्राचार्य सुदत्त श्री द्वारा भस्मीभूत किया हुआ कामदेव पुनरुज्जीवित न होसका। परवस्तमोबहुलोऽपि । रजोगुण व तमोगुण की प्रचुरता से रहित होकर के भी-प्रताप व पराक्रम-युक्त व की अधिकता से राहत होने पर भी ) आतत-गुण-धर्म-धर ( आरोपिन- दाई गई प्रत्यश्चा-युक्त -- धनुर्धारी) थे। यहाँ पर विरोध प्रतीत होता है, क्योकि प्रताप और पराक्रम-हीन पुरुप चढ़ाई पाले धनुप का धारक किस प्रकार हो सकता है। इसका परिहार यह है कि जो अरजस्तमोबहुलोऽपि पाप व अज्ञान की प्रचुरता से रहित होते हुए श्रपि (निश्चय से ) आतत-गुण-धर्म-धर (महान मावि गुणों व उत्तमझमादिरूप धर्म के धारक) थे। इसी प्रकार जो अकिञ्चन ( दरिद्र) होकर के मायनिवास (तीन माणिक्यों के धारक थे। इसमें भी पूर्व की भाँति बिरोध मालूम पड़ता है, करिद्र मानव का तीन माणिक्यों का धारक होना नितान्त प्रसङ्गत है। अतः समाधान यह है कि पिराज ) अकिश्चन (धनादि परिग्रहों से शून्य-निर्मन्य वीतरागी) होते हुए निश्च प्र से रत्नत्रयनिवास मार्शन, सम्बरझान व सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रय के मन्दिर ) थे। जो अचिभूपणोऽपि (कनककुण्डलादि I से रहित होने पर भी) सुवर्णालंकार ( सुवर्ष के अलारों से अलंकृत अथवा राजकुल के वृक्षार) यहाँ पर भी विरोध प्रतीत होता है, क्यों के आभूषण-हीन मानव का सुवर्णमयी प्राभूपणों से मण्डित या राजकुल का शृङ्गार होना असङ्गल है। अतः इसका परिहार यह है कि जो अ-विभूषण सका सर्वज्ञ हरे भूपग है, ऐसे ) होते हुए निश्रय से सुबर्ण-अलंकार राजकुल अथवा शोभन आभूषण से सुशोभित ) थे। जो अपमलोचनोऽपि ( अत्रिलोचन---शङ्कर (रुद्र) न हो करके सम्पन्न-उमा समागम (गोरी-पार्वतो-के साथ पारपूर्ण रतिपिलास करनेवाले थे। यहाँ पर Tोध प्रतीत होता है; क्योंकि जो शङ्कर नहीं है, वह पार्वती परमेश्वरी के साथ परिपूर्ण रसिविलास ला किस प्रकार हो सकता है ? अतः समाधान यह है कि जो अ-विप-मा-ले'चन ( हालाहल सरीखी काली कर दृष्टि से शून्य अथवा राग, द्वेष रहित समदर्शी या शास्त्रोक्त लोचन-युक्त अथवा मिध्यात्व सम्बग्रंष्टि होते हुए निश्चय से जो सम्पन्न-उमा-सम-भागम थे। अर्थान्—जिसकी कीति, या परिणाम और सिद्धान्त ज्ञान परिपूर्ण है, ऐसे थे। भावार्थ-जो कीर्तिमान, समदृष्टि एवं प्रकाण्ड विद्वान थे। इसी प्रकार जो अकयोऽपि ( श्रीकृष्ण नारायण न होकरके भी ) सुदर्शन( सुदर्शन चक्र से विभूषित ) थे। यहाँ भी पूर्व की तरह विरोध प्रतीत होता है। क्योंकि जो की पण नहीं है, वह सुदर्शन चक्र से विराजित किस प्रकार हो सकता है ? अतः इसका परिदार यह है अकृष्ण ( पापकालिमा या कृष्णलेश्या से रहित ) होते हुए निश्चय से सुदर्शन-राजित ( सर्वोत्तम सौन्दर्य या सम्यग्दर्शन से अलंकृत ) थे। अथवा [शः कृत उपद्रवों के अवसर पर ] जो सुदर्शनमेरू सरीखे पजिव (निश्चल) थे। जो असङ्गम्पृहोऽपि धन-धान्यादि परिग्रहों में लालमा-शून्य हो करके भी जातरूप सुवर्ण में लालसा रखने वाले थे। यह कथन भी विरुद्ध प्रतीत होता है, क्योंकि धन-धान्यादि परिग्रहों झानसा न रखने वाले घातरागो सन्त की सुवर्ण में लालसा किस प्रकार हो सकती है ? अतः इसका धान यह है कि जो असशस्पृह ( असङ्गो-कर्ममल कज से शून्य सिद्ध परमेटियों अथवा परिप्रह-हीन नियों में लालसा रखते हुए ) निश्चय से जातरूप प्रिय थे। अर्थान्-जिन्हें नग्न मुद्रा ही विशेष प्रिय थी।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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