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ફરક
यशस्तिनकचम्पूकाव्ये * इत्यस्यायनानुनावनाशयशनायेखर्वगर्वपर्वतभारमनारुरुहम् । राजनशेष विषयातिशयपसूतो गेषां महाकविकृतौ न मनीषितानि । तेषां भृती च सनां च मनत्र मन्ये वारदेवताविहितशामिनेश्वराणाम् ॥ २७६ ॥
दाचिनियतवृत्ति वर्गपइपोगानुबशुद्ध मिश्रितापभागाप्रकाशितप्रतिभेषु पण्डितप्रकाण्डमण्डलीमण्डनाढम्बरसे मिलए गये है। २. ३. समता । कान्ति-- रचना कुमारता लान समता' है और उसमें निर्मलदा त्मना ‘कान्ति है।
५. अर्थव्यक्ति, जहाँपर उन उन शब्दों की सत्ता से साक्षात् अर्थ का प्रतिपादन होता है और बलात्कार पूर्वक अर्थज्ञान न होकर सुखपूर्वक अर्धज्ञान होता है। ५. प्रसत्ति३ (प्रसाद) जिस काय के ललित शब्दों द्वारा शीघ्र ही अर्व की प्रतीति होती है, वह 'प्रसाद' गुण है। ६. समाधि - जहाँपर दूसरे पदार्थ का गुग दूसरे पदार्थ में आरोपित-स्थापित किया जाता है, उसे 'समाधि' गुण समझना चाहिए।
-दलेप व ओजगुण-जिस काव्य के शब्द पृथक-पृथक होते हुए भी एक श्रेणी में हुए के समान परस्पर मिले हुए होते हैं, वह 'श्लेषगुण है एवं जहाँपर समास की अधिकता होती है, उसे 'मोगुण समझना चाहिए परन्तु यह ( समास की बहुलता ) गद्यकाव्य में विशेष मनोज्ञ प्रतीत होता है।
९-१०-माधुर्य व सौकुमार्च गुण-जहाँपर शब्द और अर्थ दोनों रस-सहित हों अथवा जहॉपर सरस अर्थवाले शब्द वर्तमान हो, उसे 'माधुर्यगुण कहते हैं एवं जहाँपर. निष्ठुर ( कठोर ) शब्द न हों उसे सोकमार्यशुम' कहा है। प्राकरणिक अभिप्राय-यशोधर महाराज ने उक्त कविद्वारा पूँछे हुए लोक का उत्तर देते हुए कहा कि जो ऐसे काव्यरूप वृक्ष को जानता है, वही कवि हे" ॥२७५॥ अथानन्तर कोई महाकवि यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन् ! जो राजा जोग महाकवियों के काव्यशाखों का, जिनमें समस्त विश्चों ( काव्य-गुण, दोष, शृङ्गार आदि रस तथा सुभाषिततत्वों) की विशेषरूप से उत्पत्ति पाई जाती है, श्रबण व पठनादि का मतारथ (मला) नहीं करते. उनके दोनों कान, जिला व मन ऐसे मालूम पड़ते है-मानों-वाणी की अधिष्ठात्री देवता (बृहस्पति ) द्वारा दिया हुआ शाप ही है ॥२७६।।
अधानन्तर हे मारिदत्त महाराज ! किसी अवसर पर मैंने प्रशस्त विन्मण्यन में आभरणप्राय शब्द-विस्तारपूर्वक किये हुए पचन-उपन्यास के प्रारम्भी (पावविवादों) में, जिनमें मर्यादित समास, 'इत्यस्यार्यकयनानुनयनाशयशयेन' घः । १. पन्धस्य यदवेरम्ब ममता सोच्यते बुधैः। यदु बलवं तस्यैव सा कान्तिरदिता यथा ॥१॥ २-३ तथा च वाग्भट्टः कवि :-यदशेयत्वमर्मस्य सार्थमक्तिः स्मृमा यथा । मटित्यपिकावं मत्प्रसत्तिः सोच्यते पुषैः । ४-५ तथा व सभः -म समाधियन्यस्य गुणोऽन्यत्र निबेश्यने । इलेपो यत्र पदानि स्युः स्यूतानीत्र परस्परं । ६. ओजः समासभूयस्त्वं तद्गयेष्याते मुन्दरम् ॥ . वणच वाग्मकाये -परसार्थपदत्वं मत्तन्माधुर्यमुदाहृतम् । अनिष्टाक्षराव यस्सौकुमार्यमिव मया ॥१॥ 4. समुच्चयालंकार । ९. उस्प्रेक्षालंकार ।