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________________ २२२ यशस्तिसाम्पूषव्ये तेजोडीने महीपालाः परे चविते । निःसई हिन को पते पर भस्मन्पमणि ॥५२॥ महंकारविहीनस्प कि विस्केन भूभुः । मरे कावरपिले हिस्मादमपरिग्रहः ॥१६॥ वर्षोमर्थश्व नो यस्य धनाय मिधमाप । को विशेषो भवेदाहस्सस्य चित्रगतस्य च ॥६॥ येपा बाहुबलं नास्ति येपो मास्ति मनोबलम् । तेशं चन्मयी देव कि कुबिम्परे स्थितम् ॥११॥ उदयास्समयारम्भे प्रहाणा कोऽमरो प्रहः । कोऽन्यः महा जगस्मा कपाले भैक्ष्यमरनतः ॥२६॥ (आलसी) पुरुष उसप्रकार शत्रुओं द्वारा मार दिया जाता है जिसप्रकार महलों का बनावटी सिंह कौओं-आदि द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। ।। ५१॥ हे राजन् ! जिसप्रकार निश्चय से उष्णता-शून्य ( शीतल) राख पर कौन पुरुष निर्भयता-पूर्वक पैर नहीं रखता ? अपि तु सभी रखते है पसीप्रकार उद्यम-हीन राजासे भी कुटुम्बी-गण व शत्रुलोग शत्रुता करने तत्पर होजाते हैं। ॥५२॥ जिसप्रकार भयभीत ( डरपोक ) भनवाले पुरुष का शत्र-धारण निरर्थक है उसीप्रकार उद्योग-हीन राजा का ज्ञान भी निरर्थक है३ ॥५३॥ हे राजन् ! जिस राजा का हर्ष (प्रसन्न होना) धन देने में समर्थ नहीं है। अर्थात-जो राजा किसी शिष्ट पुरुष से प्रसन्न हुश्रा उसे धन नहीं देता--शिष्टपालन नहीं करता एवं जिस राजा का क्रोध शत्रु की मृत्यु करने में समर्थ नहीं है। अर्थात्-जो शत्रुओं व आततायियों पर कुपित होकर उनका घात करने में समर्थ नहीं होता-दुष्ट-निग्रह नहीं करता। ऐसे पौरुष-शून्य राजा में और चित्र-लिखित ( फोटोवाले ) राजा मैं क्या विशेषता-भेद-है ? अपि तु कोई विशेषता नहीं है। अर्थात-पौरुष-हीन राजा फोटोवाले राजा सरीखा कुछ नहीं है। निष्कर्ष-राजा का कर्तव्य है कि वह हर्षगुण द्वारा शिष्ट-पालन और क्रोध द्वारा दुष्ट-निग्रह करता हुआ फोटो में स्थित राजा की अपेक्षा अपनी महत्वपूर्ण विशेषता स्थापित करे ॥५४॥ हे राजन् ! जिन पुरुषों में भुजा-मण्डल-संबंधी शक्ति (पराक्रम) नही पाई जाती और जिनमें मानसिक शक्ति (चित्त में उत्साह शक्ति ) जाग्रत हुई शोभायमान नहीं है, उन उद्यम हीन पुरुषों का आकाश में स्थित हुमा चन्द्र-बल (जन्म-आदि संबंधी चन्द्र प्रह की शुभ सूचक माङ्गलिक शक्ति)क्या कर सकता है? अपितु कुछ भी नहीं कर सकता ॥५॥ हे राजन् । सूर्य, चन्द्र, राहु व केतु-आदि नवमहों का समय और अस्त होना प्रारम्भ होता है। अर्थात्-अमुक व्यक्ति के चन्द्र प्रह का उदय इतने समय तक रहकर पश्चात् अस्त होजायगा, जिसके फलस्वरूप यह चन्द्र के उदयकाल में धन-आदि सुख-सामग्री प्राप्त करके पश्चात्-उक्तमाह के अस्त काल में दुःख-सामग्री प्राप्त करेगा। इसप्रकार इन शुभ व अशुभ नव ग्रहों का उदय व अस्त होना प्रारम्भ होता है परन्तु उन ग्रहों को उदित ष अस्त करनेवाला दूसरा कौन ग्रह है? अपितु कोई ग्रह नहीं है। इसीप्रकार समस्त तीन लोक की सृष्टि करनेवाले श्रीमहादेव की, जो कि कपाल (मुदों की खोपड़ी) में भिक्षा-भोजन करते हैं, सृष्टि करनेवाला दूसरा ( माग्य-मादि) कौन है? अपितु कोई नहीं है। भावार्थ---जिसप्रकार जब ग्रहों के उदित व अस्त करने में दूसरा प्रहसमर्थ नहीं है एवं श्री महादेष की सष्टि करनेवाला दूसरा कोई भाग्य-श्रादि पदार्थ नहीं है उसीप्रकार लोक को भी सखी-दुःखी करने में प्रशस्त व अप्रशस्त भाग्य मी समर्थ नहीं है। इसलिए भाग्य कुछ नहीं है, केवल पुरुषार्थ ही प्रधान है। प्रकरण में प्रस्तुत दृष्टान्तों द्वारा 'चार्वाक अवलोकन' नाम का मंत्री देवसिद्धान्त का खंडन करता हुमा पौरुषतत्व की सिद्धि यशोधर महाराज के समक्ष कर रहा है। ॥५६॥ हे राजन् ! * 'स्वे परे च'०। । 'हामो न यस्येह' का ।. १. शान्तालार। २. दृष्टान्तालद्वार। ३. आक्षेपालबार । ४. ययासंख्य-अलद्वार व माथेपालद्वार। ५. माझेपानाहार। ६. आक्षेपालशर ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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