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तृतीय पाश्चासः
२२३ वविक्रम माक्रान्ससमस्तमुवनस्थितिः। विशिष्टदानवोच्छेदाद्वियी इरिखनव ॥५॥ कामपि भित्रमासान यस्त? म चेटते । तस्यायविषु म मेयो वीजमोजिकुटुम्निवत् ॥॥ सूर्य धीम्या मिका सोयोछोय स्वायत्तसम्मकम् । तथाप्यताश्चयं यत्सीदन्ति नरेश्वराः ॥६९१
सामन्यसामान्सस माय चिना । निर्ममा प्रमदेध परस्पतौ ॥१०॥ इति पौरुषमापिणः चाकावलोकनाद ,
दैवं च मानुष कर्म लोकस्यास्य फलाप्तिषु । कुतोऽन्यथा विचित्राणि फलानि समष्टिषु ॥३१॥ इसलिए आप अपने पराक्रमरूपी चरण द्वारा समस्त लोक के स्थान स्वाधीन किये हुए होकर शत्रुरूपी दैत्यों का गर्वोन्मूलन (नाश) करने के फलस्वरूप उसप्रकार विजयशाली होनो जिस प्रकार श्रीनारायगा अपने पराक्रमशाली चरण द्वारा समस्त लोक के स्थान स्वाधीन करते हुए दानयों के उच्छेद (नाश) से विजयशाली होते हैं। ॥१७॥ हे देव ! कुछ भी लक्ष्मी प्राप्त करके उसकी वृद्धि के लिए पुरुषार्थ न करनेवाले .(प्रयत्नशील न होनेवाले) मानव का उत्तरकाल ( भविष्य जीवन) में उसप्रकार कल्याण नहीं होता जिसप्रकार बीज खानेवाले किसान का उत्तर काल में कल्याण नहीं होता' ॥५८।। हे राजन् ! धनादि सम्पत्तियों से सुख प्राप्त होता है और सम्पत्तियाँ शूरता (वीरता) से उत्पन्न होती हैं एवं शूरता स्वाधीनता से उत्पम होनेवाली है। अर्थात् स्वाभाविक पुरुषार्थ शक्ति से उत्पन्न होती है। तथापि राजा लोग जो दरिद्रता संबंधी दुःख भोगते हैं, लोक में यही आश्चर्यजनक है' || हे राजन् ! प्राप्त हुई भी लक्ष्मी अनोखे पुरुषार्थी स्वामी के बिना अर्थात्-भाग्य-भरोसे बैठे रहनेवाले उद्यम-हीन पुरुषका उसप्रकार गाइ आलिङ्गन नहीं करती जिसप्रकार खी जरा (वृद्धावस्था) से जीर्ण-शीर्ण ( शक्तिहीन) हुम वृद्ध पुरुष का गाढ़ आलिङ्गन नहीं करती ॥६०)
. अथानन्तर-भाग्य प पुरुषार्थ इन दोनों की स्थापना ( सिद्धि) करनेवाले 'कविकुलशेखर' नाम के मन्त्री का कथन
हे राजन! इस लोक के प्राणियों को जो इष्टफल ( धनादि सुख सामग्री ) और अनिष्टफल (परिद्रता-आदि दुःससामग्री) प्राप्त होते हैं, उसमें भाग्य व पुरुषार्थ दोनों कारण हैं। अर्थात्भाग्य अनुकूल होने पर किये जानेवाले समुचित पुरुषार्थ द्वारा लोगों को सुख-साममी (धन-धान्यादिष्ट परतुएँ ) प्राप्त होती है और भाग्य के प्रतिकूल होने पर अयोग्य पुरुषार्थ द्वारा दुःख-सामग्री ( दरिद्रवा-भादि अनिष्ट पदार्थ) प्राप्त होती है। अभिप्राय यह है कि केवल भाग्य व केवल पुरुषार्थ कार्य सिद्धि करनेवाला नहीं है किन्तु दोनों से कार्य सिद्धि होती है, अन्यथा यदि उक्त बात न मानी जाय । अर्थात्--भाग्य व पुरुषार्थ दोनों द्वारा फल सिद्धि न मानी जाय तो एक-सरीखा उद्यम करनेवाले पुरुषों में नाना-प्रकार के उस व जघन्य फल क्यों देखे जाते हैं? अर्थात्-एक-सरीखा कृषि व व्यापार-आदि कार्य करनेवालों को अधिक धान्य व कम धान्य और विशेष धन-लाभ व अल्प धन-लाभ क्यों होता है ? नहीं होना चाहिए ॥६॥ हे राजन् ! जिस कार्य में बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ किये बिना ही-अचानक-कार्य-सिद्धि होजाती है, उस कार्य-सिद्धि में 'देव' प्रधान कारण है और जिस कार्य में बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ द्वारा कार्य-सिद्धि होती है, उसमें 'पुरुषार्थ प्रधान है।
१. अपमालबार । २. उपमालझार। ३, हेव-अलाहार। ४. उपमालद्वार। ५. माशेपालंकार ।