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________________ २२४ यशस्तिलकचम्पूकान्ये अप्रेशाविका यन्त्र कार्यसिद्धिः प्रनायते । तत्र देयं नृपान्यन्न प्रधानं पौरुष भवेत् ॥३२॥ सुसस्य सर्वसंपर्के देवमायुषि कारणम् । *दृष्ट्वा नु वञ्चिते सपै पौरुष सत्र कारणम् ॥३॥ परस्परोपका जीशिौषधारियेवपौरुषयोवृत्तिः फलजन्मनि मन्यताम् ॥६५॥ तथापि पौरुषायत्ताः सत्त्वानां सकलाः क्रियाः । अतस्तश्चिन्यमन्पत्र का चिन्तातीनिमयात्मनि ॥६॥ इति यायिणः कविपुलशेखरात, भावार्थदार्शनिक-चूड़ामणि भगवान समन्तभद्राचार्य ने भी कहा है कि "जिस समय मनुष्यों को इष्ट (सुखादि )व अनिष्ट ( दुःखादि) पदार्थ विना उद्योग किये-अचानक प्राप्त होते हैं, वहाँ उनका अनुकूल व प्रतिकूल भाग्य ही कारण समझना चाहिये, वहाँ पुरुषार्थ गौण है। इसीप्रकार पुरुषार्थ द्वारा सिद्ध होनेवाले सुख-दुःखादि में क्रमशः नीति व अनीतिपूर्ग 'पुरुषार्थ' कारण है, वहाँ 'देव' गौण है। अभिप्राय यह है कि इष्ट-अनिष्ट पदार्थ की सिद्धि में क्रमशः अनुकूल-प्रतिकूल भाग्य व नीति-नीति-गुक्त पुरुषार्थ इन दोनों की उपयोगिता है केवल एक की ही नहीं। प्रकरण में 'कविकुलशेखर' नाम का मंत्री यशोधर महाराज के समक्ष उपयुक्त सिद्धान्त का निरूपण करता है॥ २ ॥ हे राजन् ! उक्त बात का समर्थक दृष्टान्त यह है कि सोते हुए मनुष्य को सर्पका स्पर्श हो जानेपर यदि वह जीवित रह जाता है, उस समय उसको जीवन रक्षा में देव (भाग्य) प्रधान कारण है और जागृत अवस्था में जब मानव ने सर्प को देखा, पश्चात् उसने उसे परिहण कर दिया-हटा दिया (फेंक दिया ) अर्थान--पुरुषार्थ द्वारा उसने अपनी जीवन रक्षा कर ली उस समय उसकी जीवन रक्षा में पुरुषार्थ प्रधान कारण है ॥ ६३ ।। हे राजन् ! आप को यह बात जान लेनी चाहिए कि देव और पुरुषार्थ कार्य-सिद्धि में जब प्रवृत्त होते हैं तब वे आयु और औषधि के समान परस्पर एक दूसरे की अपेक्षा करते हुए ही प्रवृत्त होते हैं। अर्थात-जिसप्रकार जीवित (आयुकर्म) औषधि का उपकारक है. और औषधि आयु कर्म का उपकारक है। क्योंकि आयुष्य होने पर औषधि लगती है और औषधि के होने पर जीवित स्थिर रहता है इसीप्रकार 'दैव' ( भाग्य ) होने पर पुरुषार्थ फलता है और पुरुषार्थ होने पर 'देव' फलता है' ।। ६४ ॥ हे राजन् ! यद्यपि सिद्धान्त उक्त प्रकार है तथापि कर्तव्यदृष्टि से प्राणियों की समस्त चेष्टाएँ पुरुषार्थ के अधीन होती है, इसलिए पुरुषार्थ करना चाहिए और चक्षुरादि इन्द्रियों द्वारा प्रतीत न होनेवाले भाग्य की क्यों चिन्ता करनी चाहिए? अपि तु नहीं करनी चाहिए। भावार्थ-नीतिकार प्रस्तुत सोमदेवसूरि ने कहा है कि "विवेकी पुरुष को भाग्य के भरोसे न बैठते हुए लौकिक ( कृषि-व्यापारादि ) व धार्मिक (बान-शीलादि ) कार्यों में नैतिक पुरुषार्थ करना चाहिए"। नौतिकार वल्लभदेव विद्वान् ने भी कहा है कि "उद्योगी पुरुष को धनादि लक्ष्मी, प्राप्त होती है, 'भाग्य ही सब कुछ धनादि लक्ष्मी देता है। यह फायर-श्रालसी-लोग कहते हैं, इसलिए दैव-भाग्य को * 'दृष्ट्वा तु विञ्चिते सपै ख. ग.। A परिहते' इति टिप्पणी ख. ग.। १. तथा च समन्तभद्राचार्य:-अबुद्धिपूपिक्षायामिष्टानिष्टं स्वदेवतः। युद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं सपौरुषात् ॥१॥ २. जाति-अलंकार । देवागमस्तोत्र से संकलित-सम्पादक ३. जाति-लंकार । ४. उपमालंकार । ५. तथा च सोमदेवसूरि:-'तच्चिन्त्यमचिन्त्यं वा देवं'। ६. तथा च बल्लभदेवः--उपोलिंगनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीदै धेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति । दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या यरने कृते यदि न सिद्ध्यति फोऽन दोषः ॥ १॥ नातिवाक्यामृत पृ. २६५-३६८ से संकलित--सम्पादक
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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