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________________ एतीय आन्यासः महत्यानमिई व म पाइसमयोऽपि । किंतु मन्त्रनिष शत्प्रस्तुतमिहोज्यताम् ॥ ३ . विजिगीपुररिमित्रं पाणिग्राहोत्र मध्यमः। उदासीनोऽन्तराम्तर्विस्त्येिषा विषयस्थितिः ॥ -- हटाकर अपनी शक्ति से पुरुषार्थ करो, यल करने पर भी यदि कार्य सिद्ध नहीं होता तो इसमें क्या दोष है ? अपि तु कोई दोष नहीं। प्रकरण में भाग्य व पुरुषार्थ दोनों की कार्य सिद्धि में अपेक्षा माननेवाला 'कविकुलशेखर' नाम का मंत्री यशोधर महाराज से उक्त विषय का निरूपण कर रहा है' ।। ६५ ।। 'सपायसर्वर' नाम के नवीन मंत्री का कथन हे राजन् ! यह मठस्थान (विद्यालय) नहीं है और न प्रस्तुत समय वाद-विवाद करने का है किन्तु यह मंत्र-शाला ( राजनैतिक मान की सलाह का स्थान-राज-सभा) है, इसलिये बों राजनैतिक प्रकरण की बात कही जानी चाहिये ।। ६६॥ हे राजन् ! विजिगीषु, अरि, मित्र, पाणिपाह, मध्यम, उदासीन और अन्तर्छि ये राष्ट्र की मर्यादा है। भावार्थ-प्रस्तुत नीतिकार सोमदेव सरि ने कहा है कि '१-विजिगीषु, २-अरिं, ३-मित्र, ४-पार्णिप्राइ, ५-मध्यम, ६-उदासीन, थाकन्द,म-आसार और ह-अन्तद्धि ये नौ प्रकार के राजा लोग यथायोग्य गुणसमूह और ऐश्वर्य के तारतम्ब से युक्त होने के कारण राज-मण्डल के अधिष्ठाता हैं। अभिप्राय यह है कि विजिगीषु राजा इन्हें अपने अनुक्त रखने का प्रयत्न करे। १-विजिगीषु-ऐसे राजा को, जो राज्याभिषेक से अभिषिक्त हुआ भाग्यशाली है एवं खजाना व अमात्य-आदि प्रकृति से सम्पन्न है तथा राजनीति-निपुण व शूरवीर-पराक्रमी है, 'विजिगीषु कहते हैं। २-अरि-जो अपने निकट सम्बन्धियों का अपराध करता हुश्रा कभी भी दुष्टवा करने से बाज नहीं आता उसे 'अरि' ( शत्रु ) कहते हैं। ३-मित्र सम्पत्तिकाल की तरह विपत्तिकाल में भी स्नोई करनेवाले को 'मित्र' कहते हैं। सारांश यह है कि जो लोग सम्पत्तिकाल में स्वार्थवश लेह करते हैं और विपत्तिकाल में धोखा देते हैं वे मित्र नहीं किन्तु शत्रु है। जैमिनि' विद्वान के उद्धरण का भी यही अभिप्राय है। वे दोनों व्यक्ति परस्पर में 'नित्यमित्र' हो सकते हैं, जो शत्रुक्त पीड़ा-आदि आपत्तिकाल के अवसर पर परस्पर एक दूसरे द्वारा रक्षा किये जाते हैं या एक दूसरे के रक्षक हैं। नीतिकार नारद विद्वान् के उद्धरण का भी उक्त आशय समझना चाहिये। वंश परम्परा के सम्बन्ध से युक्त पन्धु-आदि सहज मित्र है। भागरि- विद्वान ने भी 'सहजमित्र' का यही लक्षण किया है। जो व्यक्ति अपनी * 'प्राहोऽथ मध्यमः, ग। १. आक्षेपालंकार । १. जाति-अलंकार । है, तथा व सोमदेवरि:-"उदासीन मभ्यम-विजिगीषुअमित्रमित्रपारपादाकन्दासारान्तई यो यथासम्भनगुनगण विभवतारतम्यान्मण्डलानामपिघातार:"॥ राजारमदैवव्यप्रकृतिसम्पनो नयषिकमयोरविष्टानं विजिगाधुः ॥ य एवं स्वस्याहितामधानेन प्रातिकस्यमियति स एवारिः॥ मित्रलक्षणमुक्तमेव पुरस्तात्-यः सम्पदीय विषयपि मेपत्ति तन्मित्रम् ।। ४. तथा च मिनिः-सत्समृवी किमास्नेई महशतमापरि । तन्मित्रं भोच्यते सविपरीस्लेन वैरिमः ।।५।। ५. तथा च सोमदेवसूरिः-यः कारणमन्तरेण रह्यो रसको वा भनति तन्नित्यं मित्रं ॥ ६. तया च नारदः -श्यते वभ्यमानस्ल बन्दैनिकारक नराः । रमेशा पध्यमानं यत्तनित्य मित्रपुय्यते ॥१॥ ५. तथा र सोमदेवमूरिः-तसहज मित्र परपुरुषपरम्परायातः सम्बन्धः ।। ८. तथा च भागरिः-सम्बन्धः पूर्वजाना यरतेन मोऽत्र समाययौ । मित्रत्वं कवितं तरुण सांक मित्रमेव हि ॥१॥ २६
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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