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________________ यशस्तिलम्पूकान्ये स एव विजयी तेषां शौर्यं यस्य नयानुगम् । किमसाध्यं ततो देव स्वया तया ॥ ६८ ॥ सदरपूर्ति व प्राण रक्षा हेतु अपने स्वामी से वेतन आदि लेकर स्नेह करता है, वह 'कृत्रिम मित्र' है ' | नीतिकार भारद्वाज विद्वान ने भी कृत्रिम मित्र का यही लक्षण किया है । ४- पाणिग्राह- -जब विजिगीषु राजा शत्रुभूत राजा के साथ युद्ध हेतु प्रस्थान करता है तब जो बाद में क्रुद्ध हुआ विजिगीषु का देश नष्टष्ट कर डालता है उसे 'पाणिमाह' कहते हैं । ५--मध्यम — जो उदासीन की तरह मर्यादातीत मंडल का रक्षक होने से अन्य राजा की अपेक्षा प्रवल सैन्य शक्ति से युक्त होने पर भी किसी कारण वश ( यदि मैं एकाकी सहायता करूँगा तो दूसरा मुझ से बैर बाँध लेगा - इत्यादि कारण से ) विजय की कामना करनेवाले अन्य राजा के विषय में मध्यस्थ बना रहता है-उससे युद्ध नहीं करता - उसे 'मध्यस्थ' या 'मध्यम' कहते हैं" । ६ देशको का किसी अन्य विजिगीषु राजा के आगे पीछे या पार्श्वभाग पर स्थित हुआ और मध्यम आदि युद्ध करनेवालों के निग्रह करने में और उन्हें युद्ध करने से रोकने में सामर्थ्यवान होने पर भी किसी कारण वश या किसी अपेक्षा वश दूसरे विजिगीषु राजा के विषय में उपेक्षा करता है-उससे युद्ध नहीं करता - उसे 'उदासीन' कहते हैं । ७— आनन्द — जो पाष्णिमाह से बिलकुल विपरीत चलता है- जो विजिगीषु की विजय यात्रा में हर तरह सहायता पहुँचाता है, उसे 'कन्द' कहते हैं, क्योंकि प्रायः समस्त सीमाधिपति मित्रता रखते हैं, अतः वे सब 'आनन्द' हैं ' । = - आसार - जो पाणिग्राह का विरोधी और आॠन्द से मैत्री रखता है, वह 'आसार ' है"। - अन्तद्धिं - शत्रु राजा व विजिगीषु राजा इन दोनों के देश में है जीविका जिसकी तरफ से वेतन पानेवाला पर्वत या अटवी में रहनेवाला 'अन्तर्द्धि' है । दोनों की २९६ प्राकरणिक सारांश यह है कि ' उपायसर्वज्ञ' नाम का नवीन मंत्री यशोधर महाराज से प्राकरणिक राजनैतिक विषय निरूपण करता हुआ कहता है कि हे राजन् ! विजिगीषु आदि उक्त राजा लोग राष्ट्र की मर्यादा हैं ||३७|| हे राजन् ! उन विजयशाली राजाओं में वही राजा विजयश्री प्राप्त करता है, जो नय राजनैतिक ज्ञान व सदाचार सम्पत्ति ) के साथ रहने वाली पराक्रम शक्ति ( सैन्य व खजाने की शक्ति ) से विभूषित है । इसलिए हे देव ! जब आप उक्त दोनों गुणों के स्थान हैं तब आप के द्वारा लोक १. तथा च सोमदेवयुरिः यत्तिजीवितद्धेतोराश्रितं तत्कृत्रिमं मित्रम् ॥ २. तथा च भारद्वाजः वृति एकाति यः स्नेहं नरस्य कुत्ते नरः । तन्मित्रं कृत्रिमं प्राहुनीतिशास्त्रविदो जनाः ॥ नीतिवाक्यामृत ( भाषादीका समेत ) पृ० ३०३ से ( मित्र प्रकरण ) व पृ० ३७१ से ( विजिगीषु आदि का स्वरूप ) संकलित – सम्पादक ३-८. तथा च सोमदेवपूरिः यो विजिगीषो प्रस्थितेऽपि प्रतिष्ठमाने वा पश्चात् होपं जनयति स पाणिप्राइः ||१|| उदासीनवदनियतमण्डलोऽपरभूपापेक्षया समधिकलोऽपि कुतश्चित्कारणदन्यस्मिन् नृपती विजिगीषुमाणे यो मध्यस्यभावमचलभ्यते स मध्यस्थः ॥ २॥ अप्रतः पृष्ठतः कोणे या निकृष्ट वा मण्डले स्थितो मध्यमादीनां विप्रीतान निग्रहे संहितानामनुप्रहे समर्थोऽपि केनचित्कारणेनान्यस्मिन् भूपतौ विजिगीषुमाणे य उदास्ते स उदासीनः ॥३॥ पार्ष्णिग्रहाद्यः पश्चिमः स आक्रन्दः ॥४॥ पाष्णिमाहाभिश्रमासार कन्दमित्रं च ॥५॥ अरिविजिगीषोर्मष्ठा विहितवृत्तिरुभयवेतनः पर्वतादवीकृताश्रयश्चान्तर्द्धिः ॥६॥ नीतिवाक्यामृत ( भाषाटीका समेत ) पृ० ३७१ से संकलित - सम्पादक ५. जाति अलंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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