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द्वितीय आधासः पातालवेलावनवारिवासविश्वभराभवभ्रमणाविराम । खिनेव कीतिः क्षितिपस्य पश्य विश्राम्यति स्म निदिवाकयेषु ॥१५॥
। पस्मिन्नियात्राकृतकृतहले वा बभूवमहावाहिन्यः संभ्याचमनकुल्या इव, पेशायनामि पुष्पारणमभूमप हम, पपोषयो जलविणीपिका प, दीपान्तराणि प्रविवेशनिवेशा.हद, कुलशिखरिणः भोगायला हव, दिपानभवनान्युपचापा
कृम्भिस्तम्भाः प्रशस्तिशिहाब।
पस्मिन् महीं शासति भूमिना बभूवुरहये किल परपलोकाः।
मनीषितावासमनोरथाना स्वर्गाय यस्माल मनः प्रजानाम् ॥ १३ ॥ अहो महीपाल भूपस्य तस्य स्वदेशमा चम्बमतिः प्रियाली। पतियतत्वेन महीसपमा प्राप्तोपरिधात्पी पाहि 480 साभूप्रतिस्तस्य मनोभवस्य धर्मावनिर्मपरायणस्प । गुणोकधाम्नो गुणरत्नभूमिः मारिनोस्य कलाप्रसूतिः ॥ २५ करके उसे छोड़ देने में चपलता-चंचलता नहीं करता था। नीतिनिष्टों ने भी कर्तव्य-पालन के विषय में उक्त बात कही है।
जिस यशोधू राजा की कीर्ति नागलोक, व्यन्तरों के निवास स्थान, असंख्यात समुद्र और कुलाचलों पर चिरकाल पर्यन्त पर्यटन करने के कारण थक चुकी थी, इसलिए ही मानों-बह दीर्घकालक देवताओं अथवा स्वा-षिमानों में विश्राम करने लगी ॥५२॥
जब यशोध महाराज ने दिग्विजय करने का कौतूहल किया तब उनके [प्रताप के प्रभाव से] गङ्गा व यमुना-श्रादि महानदियों, सामायिक समय-संबंधी आचमन करने की कृत्रिम नदियों-सरीखीं होगई एवं समुद्र के तटवर्ती बगीचे, पड चुनने की पुष्प-नाटिकानों जैसे, चारों समन जलक्रीड़ा करने की बावदियों सरीखे, दूसरे द्वीप पड़ोसियों के गृहाङ्गण सरीखे, हिमाचल व विन्ध्याचल-श्रादि कुलाचल कीड़ा-पर्वतों के सदृश, इन्द्रादिकों के भवन शिविरस्थानों के तुल्य और दिग्गजेन्द्रों के बन्धन-स्तम्भ प्रशस्ति-शिलाओं (प्रसिद्ध लेखन-पट्टों) सरीखे हुए ॥
जब यशोमहाराज पृथिवी पर शासन करते थे वय निश्चय से प्रजा के लिए स्वर्गलोक भी तुम्छतर होगए। क्योंकि मनोरथों के अनुकूल मनोवाञ्छित (मनचाही) वस्तुएँ प्राप्त करनेवाले प्रजाजनों का मन स्वर्ग-प्राप्ति के हेतु प्रवृत्त नहीं होता था ।।३।।
. हे मारिदत्त महाराज ! उस 'यशोधैं' राजा की मापके वंश में उत्पन्न हुई 'चन्द्रमति' नाम की ऐसी पट्टरानी थी, जिसने निश्चय से पतिव्रत-धर्म के माहात्म्य से पृथिवीरूपी सपनी ( सौत ) से उब पर प्राप्त किया था' ।। ५४॥ बह चन्द्रमति प्रिया, उस यशोर्ष महाराज रूप कामदेव की रति थी और धर्म में वत्पर रहनेवाले महायज की धर्मभूमि थी एवं गुणों के अपूर्व गृहरूप महाराज की गुणरूप रत्नों की खानि थी तथा कलाओं की प्राप्ति का कौतूहल करनेवाले प्रस्तुत राजा की कलाओं की उत्पत्ति थी' ॥१५॥
१. परिसंख्या छ श्लेषालंकार।
२, तथा चोक्तं-'नारभ्यते किमपि विप्नभयेन नीचैः संजातविनमधमाश्च परित्यजन्ति संक्षिपमान्तमगोडी समासपिना मारब्धमुसमजनास्तु परित्यजन्ति ॥ संस्कृत टीका पृ. २२१ से संकलित--संपादक
___ अर्यात्--संसार में नीच पुरुष वे है, जो विन्न आने के डर से कोई भी कार्य आरम्भ नहीं करते और अधम पुरुष वे हैं, जो कि बिन-बाधाओं के उपस्थित होने पर आरम्भ किया हुमा कार्य कोड बैठते हैं एवं उत्तम पुरुष , जिनका शरीर काटे जाने पर भी ( अनेक कठों से मलेशित होते हुए भी ) विज बाधाओं को नष्ट करते हुए भारंभ किया हुला कार्य कदापि नहीं छोड़ते। १. उत्प्रेक्षालंकार । ४. दीपक व उपमालंकार। ५. हेतु-अलंकार । ६. रूपकाबहार । ७. दीपकालहार व रूपक एवं उपमालकार ।