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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
सीलेन टाप जनानां निदर्शनत्वं पतिसुवसेन । पत्युमिदेशावसनरोपचारादाचार्यकं या च सलीवु केभे ॥ १६ ॥ रूपं भरि भावेन सौभाग्यं विनयेन च । कलाबेन भूयरमास पात्मनः ॥ ६७ ॥
अपि च सत्यपि महति शुद्धान्ते या दयेव धर्मस्य मयपद्धतिरिव स्याद्वावस्थ, नीतिवि राज्यस्य, क्षान्तिरिक तपसः, अनुत्सेकस्थितिरिव श्रुतस्य कीर्तिरिय जीवितव्यस्थ, विजयवैजयन्तीव मनसिजस्य, माकन्दमअरीष पुष्पाकरस्प कल्पतेव त्रिविमस्य, कल्याणपरम्परेव पुण्योदमदिवसस्य तस्य महीपतेर्मतिदेवतायाः प्रणश्प्रासादाधिष्ठानभूमिरासीत् । यस्वा भर्तुः श्रीविलासवपस्येव, कीर्तिः प्रसाधनललीय, सागराम्बरा मनोरथानुचरीव, सरस्वती विनोदभु विध्व मूषणलक्ष्मीर्निजरूपावलोकनादर्शकेलिरिय भवन्ती स्वेनैव सापस्म्यममा, न पुनः प्रणयप्रसरखण्डनेन ।
एवं तयोर्मोबीनाभिराममहाराजयोरिव परस्परानुबन्धपेशवं त्रिवर्गफमनुभवतोरेकदा पुत्रप्रार्थनमनोरथावसथस्व सीर्घकासम्मानपथस्य प्रकाशितपरस्परप्रीतिरसस्य दिवसस्य ब्राह्मसमावर्ते मुहूर्ते मिथः संभाषणकथः प्रावर्तायमुदन्तः
जो चन्द्रमति महादेवी, शील ( ब्रह्मचर्य ) और पतिव्रत धर्म के पालन करने में लोगों के लिए उदाहरण-भूमि थी । अर्थात् — विद्वान् लोग महिला संसार को शील व पतिव्रत धर्म में स्थापित करने के लिए जिस चन्द्रमति महादेवी का दृष्टान्त अपनी बक्तृत्वकला व लेखनकला के अवसरों पर उल्लेख करते थे एवं जिसने पतिदेव की आज्ञा का तत्काल पालन करने में साध्वी ( पवित्रता ) स्त्रियों में आचार्य पद प्राप्त किया था । अर्थात् – जो सती व साध्वी खियों में शिरोमणि थी' ।। ५६ ।। जिसने पतिदेव में अनुराग द्वारा अपना अनोखा लावण्य ( सौन्दर्य ) विभूषित किया था, इसीप्रकार विनय द्वारा सौभाग्य और सरलता द्वारा अपना कला अलकृत किया था
विशेषता यह है - यद्यपि प्रस्तुत यशोर्घ महाराज के अन्तःपुर ( रनवास में अधिक संख्या में ( हजारों ) रानियाँ थी तथापि उनमें यह चन्द्रमति महादेवी उस राजा की बुद्धि रूप देवता के प्रेमरूप प्रासाद (महल) की उसप्रकार अधिष्ठान-भूमि ( मूलभूमि ) थी जिसप्रकार दया ( प्राणिरक्षा ) धर्मरूप महल की अधिष्ठान भूमि होती है। जिसप्रकार नैगम आदि नयों की पद्धति ( मार्ग ) अनेकान्त रूप महल की मूलभूमि होती है। जिसप्रकार नीति ( न्याय मार्ग) राज्यरूप भवन की अधिष्ठान भूमि होती है। जिसप्रकार क्षमा तपश्चर्या की, विनय प्रवृति शास्त्रज्ञान की व कीर्ति जीवन की अधिष्ठान भूमि होती है। जिसप्रकार तीनों लोकों पर विजयश्री प्राप्त करने फलस्वरूप उत्पन्न हुईं कामदेव की विजयपताका, उसके भवन की अधिष्ठान भूमि होती है व जिसप्रकार आम्र-मअरी वसन्त ऋतु की अधिष्ठान भूमि होती है एवं जिसप्रकार कल्पवाली कल्पवृक्ष की और जिसप्रकार कल्याण श्रेणी ( पुख्य-समूह ) पुण्योदय पाले दिन की अधिष्ठान भूमि होती है । जिस चन्द्रमति महादेवी के पतिदेव ( यशोध महाराज की लक्ष्मी ने रविविलास में सहायता देनेवाली सखी-सी होकर, कीर्ति ने सैरन्ध्री ( षस्त्राभूषणों से सुसखिरा करनेवाली सखी ) सरीखी होती हुई, पृथिवी ने उसकी मनोरथ पूर्ति करनेवाली किङ्करी-सी होकर, सरस्वती ने कौतूहल में सहायता पहुँचानेवाली भुजिष्या ( किक्करी वेश्या ) सरीखी होकर व आभूषण लक्ष्मी ने अपने रूप-निरीक्षण में दर्पण-कीड़ा जैसी होकर, केवल स्त्रीत्व के कारण से ही उसका सपलीव ( सौत होना ) स्वीकार किया था, न कि प्रेम-प्रसार के भङ्ग द्वारा * ।
इसप्रकार वे दोनों दम्पती ( चन्द्रमति पट्टरानी और यशोर्घ महाराज ) जब मरुदेवी और नामिराजसरीखे धर्म, अर्थ, और काम इन तीनों पुरुषार्थो का फल परस्पर की बाधारहित सेवन कर रहे थे तब एक समय ऐसे दिन के, ब्राह्म मुहूर्त में ओ कि पुत्र प्राप्ति की याचनारूप मनोरथ का स्थान था और जिसमें चौथे दिन
१. उपमा दीपकालङ्कार | २. दीपकालङ्कार । ३. दीपक व उपमालंकार। ४ 'भुजिष्या गणिका' इि देश्यात् । सं० टी० से संकलित - ५. दीपक व उपमालंकार ।