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________________ - - . - -.. - - - द्वितीय श्राधासः १२३ साखण्डल: फिल मूतत्वमुपागतो में विद्याः प्रसाध्य सुरलोकगुरूपविशः। मस्केतने समयसम्ममहोत्सवी काम व्यापि जनैः किल मोदमानैः ॥ ५॥ इत्यं मया किमपि देव मिशावसाने स्वप्ने व्यहोकि लव संतसिहेतुभूतम् । मार्य तरपतिनिधगाव वेषी पुनोचिरात्तव भविष्पप्ति कामितश्रीः ॥ १९ ॥ aa: किल । अवधि मध्येन सहाभिताना मनोरधैश्वमः मुदस्याः । मुखारशे व बभूव कृष्णं कुचर्य वैरिबलेन सार्धम् ॥६॥ सिंहानां शौर्यटेलीषु चतुरम्भाधिषीक्षण । मसद्विपादनादेषु साववन्ध मनः किल ॥ ६१ ॥ परमाणाः पार्थिवलोकभाः प्रायेण गभिपिणो अभूवुः । सस्मारिशासीत्पूथिवीगुणेषु तस्याः पर दोहमायताक्ष्याः ॥६॥ अस्पैव काचिनेन्युलक्ष्मीरस्यैव मेत्रोस्पलकान्तिरासीत् । अवैव तस्याः कुचकुम्भशोभा मलेरिधान्त रागवः ॥ ६३ ॥ गर्भमर्मणि महीपतिरामानादिवेश मिषजः फिल तस्याः । चिसवितसरशं विधिमुनि मे सदुचितं च स देव्याः ॥ ६४ ॥ लान कोहुई चन्द्रमवि महादेवी के साथ प्रस्तुत राजा द्वारा रविषिलास किया गया था एवं पारस्परिक दाम्पत्य प्रेम का अनुभव प्रकट किया गया था, परस्पर की संभाषण कथा-युक्त निमप्रकार का वृतान्त हुआ। चन्द्रमति महादेवी ने कहा-ह पतिदेव ! मैंने पिछली रात्रि में स्वप्नावस्था में आपकी संतान का निमित (सूचित करनेवाला चिन्ह) कुछ इसप्रकार स्वप्न देखा है कि निश्चय से स्वर्ग का इन्द्र, बृहस्पति द्वारा कही हुई विद्याओं ( व्याकरण, साहित्य, न्याय, धर्मशाल प संगीत-आदि कलाओं) को पढ़कर मेरा पुत्र हुआ है और जिसके फलस्वरूप लोगों ने श्रानन्द-माम होते हुए मेरे महल में पुत्रजन्म के महोत्सव की शोभा यथेष्ट सम्पन्न की।' उक्त वात को सुनकर यशोध महाराज ने अपनी प्रिया से कहा 'हे देखी ! भविष्य में राज्यलक्ष्मी को भोगनेवाला प्रतापी पुत्र आपके शीघ्र होगा" ।।५८-५६॥ पश्चात् उक्त स्वन को सार्थक करने के लिए ही मानों-प्रस्तुत धन्द्रमति महादेवी गर्भवती हुई। सुन्दर दन्त-पतियाली उस महादेवी का उदर आश्रितों के मनोरथों के साथ वृद्धिंगत होने लगा और उसके दोनों कुचकलश ( स्तन-युगल ) चूचुकस्थानों पर शत्रुओं की सैन्यशक्ति के साथ कृष्ण वर्णवाले होगए३ ॥६०॥ उस चन्द्रमांत महादेवी का दोहला ( दो ह्रदयों से उत्पन्न हुई इच्छा-गर्भावस्था की इच्छा) निश्चय से सिंहों की शूरता-युक्त क्रीड़ाओं में और चारों समुद्रों के देखने में तथा मदोन्मत्त हाथियों के साथ क्रीड़ा करने में हुआ' ।। ६१ । इस कारण से कि पार्थिव-गुण-राजाओं में वर्तमान गुण (पूथिवी पर शासन करना-धादि) राज-पुत्रों में प्रायः करके गर्भावस्था से ही वर्तमान रहते हैं, इसलिए ही मानों उस विशाल नेत्रोंवाली चन्द्रमति महादेवी का दोहला (गर्भकालीन-इच्छा ) केवल पार्थिव-गुणों (पृथिवी-गुणों-मिट्टी का भक्षण करना ) में होता था। भावार्थप्रस्तुत महारानी चन्द्रमति का गर्भस्थ शिशु, भविष्य में पृथिवी का उपभोग करेगा, इसलिए ही मानोंइसे पृथिवी (मिट्टी) के मक्षण करने का दोहला होता था, क्योंकि राजाओं के गुण उनके पुत्रों में गर्भ से ही हुआ करते हैं ।। ६२ ।। उस गर्भिणी चन्द्रमति महादेवी के मुखचन्द्रकी कान्ति कुछ अनिर्वचनीय (कहने के लिए अशक्य ) और अपूर्व ही होगई थी एवं उसके दोनों नेत्ररूप कुपलयों (चन्द्रविकासी कमलों) की कान्ति भी कुछ अपूर्व ही होगई थी एवं उसके कुचकलशों ( स्तन-कलशों) की कान्ति भी उस प्रकार अपूर्व होगई थी जिसप्रकार मध्य में स्थापित किये हुए नीले पो-आदि श्याम पदार्थ के संयोगवाले मणि की कान्ति अपूर्व ( शुभ्र और श्याम) होजाती है ॥६३ ।। उक्त बात को जानकर यशोघं एजा ने अपनी महारानी के गर्भ-पोषणार्थ हितैषी वैद्यों को आज्ञा दी और गर्भवृद्धि के योग्य और अपनी मानसिक इच्छा व श्री के अनुकूल संस्कार विधि ( धृति संस्कार ) अत्यन्त उल्लास पूर्धक स्वयं विशेषता के साथ १. उपमालंकार । २. युग्मम्-जाति-अलंकार । ३. सहोक्ति-अलंकार । ४. दीपकास्टकार । ५. हेवअलंकार । ६. दीपक व उपमालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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