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मशस्तिलकचम्पूकाव्ये
सत्वान्मासोमालियं त्वयोसादिकं कर्म व देवि कार्यम् ॥६९ ॥ यस सूतिकाला कर भूकः । वासे उमवतीर्णे तस्याः प्रसूतेः समयः फिडासी ॥ ६६ ॥ बरामदैरधीः प्राक्तेवसरे वधूम। अथ पुरा धम्मनि चन्द्रमत्वात्मकामः परमोत्सवेन ॥ ६७ ॥ परका कामगाः केन्द्रासनकामिनीपिसुतः सामन्यात्रीकुलाः । सीमन्तकन्डानास्तूचानः समं किक बस्तुः मन्यास् ॥ ६८ ॥
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सम्पन्न की। भाषार्थ - भगवखिनसेनाचार्य' ने भी गर्भाधान आदि संस्कार विधि का महत्वपूर्ण प्रभाष हुए कहा है कि जिसप्रकार विशुद्ध खानि से उत्पन्न हुआ मरिण संस्कार विधि (शाणोल्लेखन - आदि) से चन्द कान्दिशाली होजाता है उसीप्रकार यह आत्मा भी क्रिया ( गर्भाधानादि संस्कार ) व मन्त्रों के संस्कार से अत्यन्त निर्मल व विशुद्ध होजाता है एवं जिसप्रकार सुवर्ण-पाषाण उत्तम सरकार किन भेदन अग्निपुट-पाक आदि) से शुद्ध होजाता है, उसीप्रकार भव्य पुरुष भी उत्तम शिवाओं-संस्कारों को प्राप्त हुआ विशुद्ध होजाता है। वह संस्कार धार्मिक ज्ञान से उत्पन्न होता है और अन्न सर्वोचम है, इसलिए जब यह पुण्यवान् पुरुष साक्षात् सर्वशदेव के मुखचन्द्र से सम्बन्ध पर पान करता है तब वह सम्यग्ज्ञान रूप गर्भ से संस्कार रूप जन्म से उत्पन्न होकर पाँच हंसा व सत्यागुक्त-व्यादि) तथा सात शीलों (दिग्ग्रत आदि) से विभूषित होकर 'द्विजन्मा' है। प्राकरणिक प्रवचन यह है कि यशोर्ष महाराज ने अपनी रानी के गर्भस्थ शिशु में नैखिक व बीजारोपण करने के उद्देश्य से सातवें महीने में धृतिसंस्कार अत्यन्त उल्लास पूर्वक सम्पन्न किया था ||६४|| प्रस्तुत यशोर्ष राजा ने गर्भस्थ जीव की शान्ति-हेतु अपनी मानवंती प्रिया से एकान्त में इसप्रकार निकाय से कहा- हे प्रिये ! तुम्हें आठ महीने तक पहिले की तरह जोर से हँसीभव कौर नहीं करनी चाहिए। मर्यात्-तुम्हें जोर से हँसी-मजाक आदि करके गर्भस्थ शिशु के
न वृद्धि होने में बाँधाएँ उपस्थित नहीं करनी चाहिए ||६५|| उस यशोर्ष महाराज ने ऐसे समुचित वचनों से, जिनमें सुस्मा से गर्मिणी व गर्भस्थ शिशु की रक्षा के उपाय पाये जाते हैं, प्रसूति गृह बनाया,
त्यों महीना आने पर उस चन्द्रमति महारानी का प्रभूति का अवसर प्राप्त हुआ * ||६६|| हे मारिदन्त महाराज! केवल राहु को छोड़कर अन्य दूसरे कल्याणकारक समस्त सूर्य आणि आठ महों से प्रशस्त (समय) की शुभ लग्न में इस समयमति' से, जो कि पूर्वजन्म में चन्द्रमति महारानी थी, मेरा जन्म आनन्द के साथ हुआ" ॥६७॥
उस समय (कशोर महाराज के जन्मोत्सव के अवसर पर ) ऐसे अन्तःपुर के प्रवेश, बाजों को पकमनियों के साथ शोभायमान होरहे थे। जो ( अन्तःपुर-प्रदेश ), नृत्य करती हुई वृद्ध १. तथा च मयजिनसेनाचार्यः—
भूतो मषिः संस्कारयोमतः । गात्युत्कर्षं मामेवं क्रियामन्त्रः संस्कृतः ॥ १ ॥ चारच दासाय संस्कियां यथा तथैव भव्यात्मा शुद्धायासादितक्रियः ॥ २ ॥ मनःसंस्कारः सम्यग्ज्ञानमनुत्तरं । बदाय लमते साक्षात् सर्वविन्मुखतः कृती ॥ ३परमसंस्कारजन्मना । जातो भवेद् विन्मेति नतैः शौच भूषितः ॥ ४ ॥ २. गवयनसेनाचार्य :---
"तिस्तु उसने मासि कार्यों तद्वतादरैः ।
मेषभरम्यन्ते मानसँगैर्भवृद्धये ॥१॥
३. भात-हार अबवा समुरक्यालङ्कार । ४ जति अलङ्कार । ५. जाति अलङ्कार । ६. जाति अलङ्कार
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百度花藍