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________________ द्वितीय आवासः १२५ आमन्दं पालबीना रतिरभसभरप्राप्त केलीविनोदाः सामोद फेरलीनां मुसाकमलवनामोल्पानप्रगलमाः । आशैत्य कुन्तलीनां कुचकालशरसावासकाराः समीराः काले वास्ति स्म तस्मिकिन मलयकतानतिनो पाक्षिणात्याः ॥६॥ ख्योम काम इवालानामगचस्वता मुहुः । समपादि प्रसादरच दियां बन्धुशामिव ॥ २० ॥ दुन्दुभिध्वनिहतस्थे मोदाय सुद्धमा दित्रि । हरिश्चनपुरीलोकवनिर्वसत्य च द्विपाम् ॥ १॥ रातः समन्वये स्वर्गाहपुष्पवृष्टिः पुरेऽपतत् । मेहे शिवखिमण्डूकवृष्टिश्च श्रीरिक द्विपः ॥ २ ॥ श्रिये निजश्रिया राशश्वारबस्तरवो बभुः । स एधारातिलोकानामुल्पासाय पुरे पुनः ॥ ३ ॥ उल्ललाल नृपतेः सदनेषु संपदे युवतिम तलाशनः । विद्विषां च नगरे विगमाव संनतं धमौकलिमादः ॥ ४ ॥ अपि च । आनन्दवायरवारिसदिनमुखानि पौराहनाजनविमोदमनोहराणि। आमुक्तकेतुरचितोत्सवतोरणानि कामं तदा शुशुभिरे नगरे गृहाणि ॥ १५ ॥ त्रियों के मन्जुल गानों से प्रीति उत्पन्न कर रहे थे। जिनमें आशीतिक (आशीर्वाद देनेवाले ) पुरुषों के मुख-कमल प्रसन्न होरहे थे। जिन नि, नृत्य करती हुई नामन! बोटे कद की कमनीय कामिनियों से मनोज्ञ प्रतीत हो रही थी। जहाँपर दूध पिलानेवाली धायों की श्रेणी हर्षित होरही थी और जिनके आंगन, पचरंगे चूर्ण-पुञ्ज के क्षेपण से क्लेशित हा वृद्ध स्त्रियों के केश-मागों से मनोज्ञ प्रतीत होरहे थे। उस अवसर पर दक्षिण देशवी ऐसी शीतल, मन्द व सुगन्धित वायुओं का संचार हो रहा था, जिन्होंने दक्षिणा देशवी स्त्रियों के रतिविलास संबंधी वेग के अतिशय से क्रीड़ा देखने का कौतूहल प्राप्त किया था, जिसके फलस्वरूप मन्द-मन्द वह रही थीं। जो केरल देश (दक्षिण देश संबंधी देश) की कमनीय कामिनियों के मुखरूप कमल-वनों की सुगन्धि का श्रास्वाद करने में विशेष निपुण होने के फलस्वरूप सुगन्धित थी। जो दक्षिण देश संबंधी कुन्तल देश की रमणीय रमणियों के कुच-कलशों (स्तनकलशों) के रसों (मैथुन क्रीडा के श्रम से उत्पन्न हुए प्रस्वेद-जलों) में कुछ समय पर्यन निवास करने के कारण शीखल थीं और जो मलयाचल पर्वत की लताओं को नचाती थीं। भावार्थ-यशोधर महाराज के जन्मोत्सव के अवसर पर शीतल, मन्द व सुगन्धि घायुओं का संचार होरहा था ॥६९|| उस समय आकाश बारम्बार उसप्रकार निर्मल होगया था जिसप्रकार हितैषियों की इच्छा निर्मल होती है और दिशाएँ उसप्रकार प्रसन्न थीं जिसप्रकार बन्धुवों के नेत्र प्रसन्न होते है |७०॥ उस अवसर पर बन्धुजनों को प्रमुदित करने के हेतु पानश में दुन्दुभि वाजों की ध्वनि हुई और शत्रुओं के नाश-हेतु उनका विनाश प्रकट करनेवाली आकाशपापी हुई !!७१।। उस समय उज्जयिनी नगरी में यशोध महाराज की लक्ष्मी वृद्धि के लिए आकाश से पुष्प-वृष्टि हुई और शत्रुओं के गृहों में उनकी लक्ष्मी के विनाश-हेतु चोटी-सहित मैंड़कों की वर्षा हुई" |७|| । उस समय यशोर्घ महाराज की लक्ष्मी-वृद्धि के हेतु, वृक्ष अपनी पुष्प व फल आदि सम्पत्ति से मनोक्ष प्रवीव होते हुए शोभायमान होरहे थे और शत्रु-गृहों में वही वृक्ष असमय में फलशाली होने के फलस्वरूप उनके विनाश-निमित्त हुए |७३।। उस समय यशोधू महाराज के महलों में लक्ष्मी के निमित्त कमनीय कामिनियों की धवल गान-ध्वनि पूँज रही थी और शत्रुओं के नगर में उनके विनाश-हेतु शुभ्र काकों का कर्ण-कटु शन 1बहुत ऊँचे स्वर से होरहा था !७४|| उस समय उज्जयिनी नगरी में प्रजाजनों के ऐसे गृह, यथेष्ट शोभायमान होरहे थे, जिन्होंने जन्मोत्सव संबंधी बाजों की ध्वनियों से विशाओं के अग्रभाग गुआयमाम किये थे। । जो नागरिक रमणी-समूह की क्रीड़ाओं से मनोज प्रतीत होरहे थे और जिनमें पोधी हुई चलाएँ फाय ही थी एर्ष जिनमें तोरण बाँदै गए थे- १७॥ १. जाति--अलंकार। २. हेतु-अलंकार । ३. समुच्चय व उपमालंकार । ४. पीपक र समुनयालंकार । ५. दीपकालंकार। ६. दीपकालकार । ५. दीपकालंकार । ८. समुच्चयासंगर ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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