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________________ तृतीय आश्वासः पीतिसंपत्तिभिः शिखण्डिताण्डवप्रारम्भपूर्वाङ्गः अनङ्गानगपरलोल्लासव्यसनिभिः प्रोषिसपुरंभिकाश्वासनप्रथमतः चातफकुलकेलिकारिभिः कलहंसनिर्वासघोषणाभिनवपटहै। कदलीपलश्यामलिदिग्भिप्तिभिरम्भोधरः प्रसवोन्मुखकामिनीकुचच्चुकाभासि मसि, मीलनेत्रविसामान्सरालावलम्बिनिरन्सरहारहारिणि समन्तास्पतति धारासारबलिले, वसुमतीतास्सनंधयथाश्यामिक्ष पयःपूर्णपयोधराभोगसुभगायो दिवि, चिरतरातपसंतापदुःस्थितायाः क्षितेयन्त्रधारागारलीलामिव विप्रति गगनमण्उने, वितससितपताकाडम्परेजिव क्षरनिरनीरेषु गिरिषु, मुक्ताफलजालप्रसाभितेचिव स्यन्दमानवारिसुन्दरपर्यन्तेयु सभसु, मेरेयातिलविसासु सीमन्तिनीत्रित्र निर्मादशब्दगमनासु बाहिनीपु, निदाघनिवापजलसरादेशिक श्रीनारायण के शरीर की श्याम कान्तिरूप संपत्ति तिरस्कृत की है। जो मयूरों के ताण्डव नृत्य के प्रारम्भ में पूर्वरङ्ग (प्रथमरङ्ग-नाट्य-प्रारम्भ में विघ्न शमन-हेतु कीजानेवाली स्तुति) के समान हैं। जिन्हें कामरूप वृक्ष के पल्लयों ( कोंपलों ) को उल्लासित ( वृद्धिंगत) करने का आग्रह है। जो विरहिणी स्त्रियों के लिए धीरता-प्रदान में प्रथम दूत हैं। अर्थात्-क्योंकि वर्षाऋतु में बहुधा लोग अपने गृहों में वापिस श्राजाते है, इसलिए इस ऋतु के मेघ विरहिणी स्त्रियों के लिए धीरता देने में प्रधानदूत का कार्य करते हैं। जो चातक ( पपीहा ) पक्षियों के मुण्डों की भीड़ा करानेवाले हैं। अभिप्राय यह है कि कवि-संसार की मान्यता के अनुसार चातक पक्षी मेघों से गिरता हुआ जल पीते हैं, अतः मेघ उन्हें सष क्रीड़ा करने में प्रेरित करते हैं। जो स्तरसों (जालनों, जात र. व लाल आनेवाले राजहंस-बतख पक्षी ) को देशनिकाला करने की घोषणा के नवीन बाजे हैं। अर्थात्-मेघों की गर्जना ध्वनि सुनकर बतख पक्षी तालाब का तट छोड़कर भाग जाते हैं, अतः मेघ उन्हें देशनिकाला करने की घोषण देनेवाले नवीन बाजे हैं। जिन्होंने दिगिभत्तियाँ ( दिशाएँ ) केलों के पत्तों से श्यामलित (कृष्णवर्ण-युक्त) की है। अभिप्राय यह है कि कवि-संसार में हरित व श्याम वर्ण एक समझा जाता है, अत: मेध केलों के पत्तों द्वारा समस्त दिशाएँ श्यामलित करते हैं। उपसंहार-उपयुक्त ऐसे मेघों से आकाशमण्डल की शोभा जब उसप्रकार होरही थी जिसप्रकार प्रसृति का अवसर प्राप्त करनेवाली स्त्री के स्तनों की चूचुक. (अप्रभाग ) शोभा कुष्णवर्णवाली होजाती है। इसीप्रकार जब निम्नप्रकार वर्षा ऋतुकालीन घटनाएँ घट रही थीं-उदाहरणार्थ-जब वेगवाली ( मूसलधार ) जलवृष्टि का जल चारों ओर से गिर रहा था, जो कि उसप्रकार मनोज्ञ प्रतीत होरहा था जिसप्रकार श्यामरँगवरले वस्त्र के चंदेवा के अधोभाग पर अवलम्बित हुई सघन मोतियों की मालाएँ मनोहर मालूम पड़ती हैं। जब आकाश उसप्रकार पयःपूर्णपयोधर-श्राभोग-सुभग ( जल से भरे हुए बादलों की पूर्णता से सौभाग्यशाली ) श जिसप्रकार पृथिवी के वृक्षरूपी पुत्रों की उपमाता (धाय) पयः-पूर्ण-पयोधर-आभोग-सुभग ( दूध से भरे हुए स्तनों के विस्तार से मनोहर ) होती है। जब श्राकाशमण्डल दीर्घ कालतक गर्मी के ज्वर से दुःखित हुई पृथिवी के लिए फुल्वारों की गृह-शोभा धारण कर रहा था। जब ऐसे पर्वत, जिनसे झरनों का जलप्रवाह ऊपर से नीचे गिर रहा था, उसप्रकार सुशोभित होरहे थे जिसप्रकार वे विस्तृत च शुभ्र ध्वजाशाली शिखरों से युक्त हुए सुशोभित होते हैं। जब ऊपर से नीचे गिरते हुए जलों से मनोहर प्रान्तभागवाले गृह उसप्रकार शोभायमान होरहे थे जिसप्रकार मोतियों की मालाओं से सजाए गए गृह शोभायमान होते हैं। जब नदियाँ उस प्रकार निर्यादशब्दगमनशालिनी ( मर्यादा उल्लङ्घन करनेवाले कोलाहल व वैमर्याद वेगयुक्त शवनवाली) थी जिस प्रकार मद्य-पान से उच्छशल हुई स्त्रियाँ मर्याद शब्द करनेवाली और वेमर्याद यहाँ वहाँ वेगयुक्त संचार करनेवाली होती हैं। जब तालाब उसप्रकार गादरूप से (लवालव) जल से भरे हुए थे जिसप्रकार प्रीष्म ऋतु
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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