SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यशस्तिकादपूनाको निपानीव इव स्वामिस्थिरीकृतनिशासनः । पार्क समय दिक्पालपुरमाजनसिद्धये ॥ ९८॥ नृणां परिच्छयः स्वस्य कार्यापाथ सुखाय । तदर्थमात्मामः क्वेशे कि परिष्दसंपदा ॥ १९॥ सवाई वेति संदेहो मितेयंत्रोपजायते। तवादात्र को नाम रणे प्रेरयते नृप ॥१..! पाति क्षेत्र यथा गोपः स्थित्वा तन्नाभि मञ्चुके। तथा त्वमपि राजेन्द्र चतुरन्तामर क्षितिम् ॥ १०१।। येऽनन्तरं स्थिता भूमेस्ते नृपास्तव भूपते। प्रतिहारसमें द्वारि तिष्ठन्स्याज्ञापरायणाः ॥ १२ ॥ अन्पऽपि मण्डलाधीशाः कृतलोकशासनम् | वास्त्रिो निषेवन्ते सिद्धाः कल्पनुमा इव ॥ १३ ॥ स्वानुवर्तिपु लोके यस्गु क्षोभाव चेरते। मेयांसि नचिरं तप चुप्तपाल प्रबोधिवत् ॥ १०४ ॥ आदि फेंककर मारता है ॥६७ 1 हे स्वामिन् ! आप, जिन्होंने अपना अनिश्चल श्रासन (स्थिति या सिंहासन) निश्चल किया है, चारों दिशाओं में स्थित हुए राजाओं के नगररूपी भोज्यपात्रों (वर्तनों) की प्राप्ति के लिए चक ( सैन्य) को उसप्रकार भेजिए जिसाकार कुंभार अपना आसन (पीढ़ा) निश्चल किये हुए पात्रों ( घटादि वर्तनों) की प्राप्ति के लिए चक्र घुमाता है । । हे राजन् ! मनुष्यों का परिवार इसलिए है कि उससे अपना कार्य (इष्ट प्रयोजन ) सिद्ध कराया जावे और जिससे सुख प्राप्त हो, इसलिए जो लोग परिवार द्वारा इष्ट प्रयोजन-सिद्धि न कराते हुए उसके लिए स्वयं फष्ट उठाते हैं- उद्यमशील होते हैं, उनकी परिवारलक्ष्मी से क्या लाभ ? अपितु कोई लाभ नहीं। भावाथे-प्रकरण में प्रस्तुत मंत्री यशोधर महाराज से श-देश में फौज भेजने के लिए प्रेरित करता हुआ कह रहा है कि हे राजन् ! आप का परिवार ( कुटुम्बीजन, अमात्यवर्ग ५ । सैन्य (पलटन) आदि) इष्ट प्रयोजन-सिद्धि ( शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करना-मावि ) के हेतु है, अतः उनसे इष्ट प्रयोजन सिद्ध कराना चाहिए सिजके फलस्वरूप सुख प्राप्त होता है और यदि बाप इष्ट प्रयोजनार्थ स्वयं कष्ट करेंगे रात्रु-देश पर चढ़ाई आदि करेंगे--- तो आपको परिवार-विभूति से क्या लाभ होगा ? कोई लाभ नहीं ।। ६६ || हे राजन् ! जिस युद्ध में मनुष्यों की बुद्धि में इसप्रकार सन्देह उत्पन्न होता है कि 'वह शत्रु [जिसके साथ युद्ध हो रहा है ] राजा होगा? अथषा मैं (विजयश्री का इच्छुक ) राजा होऊँगा ?" उस युद्ध में राजा को शुरू में ही भेजने के लिए कौन प्रेरित करता है ? अपि तु कोई नहीं प्रेरित करता' ।।१०।। हे राजेन्द्र ! जिसप्रकार किसान खेत के मध्यभाग में वर्तमान मञ्चक ( खाट या मड़वा ) पर स्थित हुआ खेत की रक्षा करता है उसीप्रकार आप भी [अपने राज्य के मध्यवर्ती उन्नयिनी राजधानी में स्थित हुए ] चार समुद्रपर्यन्त प्रश्रियी की रक्षा कीजिए* ॥११॥ हे राजेन्द्र ! आपके देश के निकटवर्ती राजा लोग आपकी आज्ञा पालन में तत्पर हुए आपके दरवाजे पर उसप्रकार स्थित होरहे हैं जिसप्रकार द्वारपाल आपके दरवाजे पर स्थित है। ॥ १०२ ॥ है राजन् ! उनके सिवाय दूसरे भी अन्य देश के राजा लोग हस्त-प्राप्त कल्पवृक्ष सरीखे हुए संसार में अद्वितीय शासन करनेवाले आपकी मनचाही भेटों द्वारा सेवा कर रहे है. ।।१०३ ॥ हे राजन् ! जो राजा अपने अनुकूल चलनेवाले सेवकों को कुपित करने के लिए प्रवृत्त होता है, उसको उसप्रकार चिरकाल तक कल्याण नहीं होते जिसप्रकार सति हुए सर्प को जगानेवाले के कल्याण नहीं होते ॥१०४॥ हे राजन् ! तथापि * 'भ्रामय' क०। मतिर्योपजायते' का । * 'मनके का। निषेवन्ति' का । ६ 'यस्तस्क्षोभाय' । + 'प्रयोधवत्' क.1 1. दृष्टान्तालंकार । २. उपमालंकार व रूपकालंकार। ३. आक्षेपालंकार । ४. भाऊपालबार । ५. दृष्टान्तालद्वार। ६. उपमालार । ५. उपमालबार । ८. उपमालङ्कार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy