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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
के दो भेद होजाते हैं । उदाहरणार्थ- पुरुषसंपत्ति - अपने देश में दुर्ग आदि बनाने में विशेष चतुर बढ़ई व लुहार आदि और द्रव्यसंपत्ति-लकड़ी व पत्थर आदि । इसीप्रकार दूसरे देश में पुरुषसन्धियादि करने में कुशल दूत तथा सेनापति और द्रव्य - रत्न सुबर्ण ध्यादि । किसी नीतिकार' ने पुरुषसंपत्ति व द्रव्यसंपत्ति के विषय में कहा है कि 'जो मनुष्य अपने कार्यकुशल पुरुष को उस कार्य के करने में नियुक्त नहीं करता तथा उस कार्य के योग्य धन नहीं लगाता, उससे कार्य सिद्धि नहीं हो पाती ॥१॥ ३- देश और काल का विभाग - अमुक कार्य करने में अमुक देश व अमुक काल अनुकूल एवं अमुक देश व अमुक काल प्रतिकूल है, इसका विभाग ( बिचार ) करना मंत्र का तीसरा श्रङ्ग है । अथवा अपने देश में देश ( दुर्ग आदि बनाने के लिए जनपद के बीच का देश ) और काल - सुभिक्ष-दुर्भि ता वर्षा एवं दूसरे के देश में सन्धि आदि करने पर कोई उपजाऊ प्रवेश और काल - आक्रमण करने या न करने का समय - कहलाता है, इनका विचार करना - यह 'देशकालविभाग' नामका तीसरा मन्त्राङ्ग कहलाता है । किसी विद्वान् ने देश व काल के बारे में कहा है कि 'जिसप्रकार नमक पानी में डालने से नष्ट हो जाता है एवं जिसप्रकार मछली जमीन पर प्राप्त होने से नष्ट हो जाती है उसी प्रकार राजा भी खोटे देश को प्राप्त होकर नष्ट हो जाता है ॥ १ ॥ जिसप्रकार काक ( कौवा ) रात्रि के समय और उल्लू दिन के समय घूमता हुआ नष्ट हो जाता है उसीप्रकार राजा भी वर्षा काल आदि खोटे समय को प्राप्त होकर नष्ट हो जाता है । अर्थात्-वर्षा ऋतु आदि समय में लड़ाई करनेवाला राजा भी अपनी सेना को निस्सन्देह कष्ट में डाल देता है ॥ २ ॥
४ – विनिपात प्रतीकार - आई हुई आपत्तियों के नाश का उपाय चिंतन करना । जैसे अपने दुर्ग आदि पर आनेवाले या आए हुए विन्नों का प्रतीकार करना यह मंत्र का 'विनिपातप्रतीकार' नाम का चौथा अङ्ग है । किसी विद्वान् ने प्रस्तुत मन्त्राङ्ग के विषय में कहा है कि 'जो मनुष्य आपति पड़ने पर मोह ( अज्ञान ) को प्राप्त नहीं होता एवं यथाशक्ति उद्योग करता है, वह उस आपत्ति को नष्ट कर देता है ॥ १ ॥
५- कार्यसिद्धि-उन्नति, अवनति और सम अवस्था यह तीन प्रकार की कार्य-सिद्धि है। जिन धाम आदि उपायों से विजिगीषु राजा अपनी उन्नति, शत्रु की अवनति या दोनों की सम अवस्था को प्राप्त हो, यह 'कार्यसिद्धि' नामका पाँचवाँ मन्त्राङ्ग है। किसी विद्वान् ने कहा है कि 'जो मनुष्य साम, दान, दंड व भेद-आदि उपायों से कार्य सिद्धि का चितवन करता है और कहीं पर उससे विरक्त नहीं होता, इसका कार्य निश्चय से सिद्ध होजाता है । सारांश यह है कि विजिगीषु राजा को समस्त मन्त्री मण्डल के साथ उक्त पंचाङ्ग मन्त्र का विचार करते हुए तदनुकूल प्रवृत्ति करनी चाहिए। प्रकरण में- 'उपाय सर्वज्ञ' नामका नवीन मंत्री यशोधर महाराज से मन्त्रशाला में उक्त पश्चात मंत्र का स्वरूप निरूपण करता है और कहता है कि राजन् ! जिस मंत्र में उक्त पाँच अङ्ग या गुण पाये जायें, वही वास्तविक, मन्त्र है और
१ तथा चोतं - समर्थ पुरुषं कृत्ये तदहं च तथा धनम् । योजयेत् यो न कृत्येषु तत्सिद्धिं तस्य नो भजेत् ॥ १ ॥ २. उतं च यतः यमात्र सैन्धवस्तोये स्थले मत्स्यो विनश्यति । शीघ्र तथा महीपालः कुदेशं प्राप्य सीदति ॥१॥ यथा काको निशाकाले कोशिकध दिवा चरन् । स विनश्यति कालेन तथा भूपो न संशयः ॥ २ ॥ ३. उकं च यत्तः--आपरकाले तु सम्प्रासे यो न मोहं प्रगच्छति । उद्यमं कुरुते शतया स तं नाशयति ध्रुषं ॥१॥ ४. तथा श्वो ं—सामादिभिस्पायैर्यः कार्यसिद्धि प्रचिन्तयेत् । न निवेंगं क्वचिद्याति तस्य तत् सिद्ध्यति ध्रुयं ॥१॥
नीतिवाक्यामृत मन्त्रिसमुद्देश ( भाषाटीका समेत ) ४० १६३-१६४ से संकलित - सम्पादक