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तृतीय आवासः
स्वयं विषमरूपोऽपि संघातः कार्य अभिज्ञातुः प्रयतमेन पथा दस्तोमाहुतिः ॥ १२१ ॥ देव देवस्य स्वभावत एव कल्याणाचारस्वदमास्पबहारत्वाचात्मनीव दुरात्मन्यपि बने निरञ्जनसंभावनं मनः । यतःमात्मनीव परत्रापि प्रायः संभावमा जने । यस्मादपि स्तेनः स्वदोषात्परि ॥ १२२ ॥
[eat] देव, संवरि निर्विचारचेतःप्रमाणं देवं च प्रसि* तैस्तैर्विशिष्टविष्टपेष्टष्टितरविभिः कविभिः प्रायेण देवस्य पूर्वपक्षपातीनि कृवाभिः महतवृधानि साधु समाकण्र्यवान् । सत्र तावत्तरुणीला विकासस्य ---
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हे राजम ! अधिकारियों आदि का समूह स्वयं विषम ( ऊँचा - नीचा - योग्य-अयोग्य ) होता हुआ भी स्वामी की सावधानी रखने के कारण उसप्रकार कार्यकारी (स्वामी का प्रयोजन सिद्ध करनेवाला ) होता है जिसप्रकार ऊँची-नीची अलियों वाला एस प्रमुच्य की सामान रखने से कार्यकारी (कार्य करने में समर्थ) होता है' ।। १२१ ॥
हे राजन् ! आप स्वभाव से ही शुभ आचरण से विभूषित और निष्कपट व्यवहार-शाली हैं, इसलिए आपकी चितवृत्ति अपने समान दूसरे दुराचारी लोगों में भी निर्दोषता की घटना ( रचना ) करती है ।
क्योंकि जिसप्रकार चोर अपने नोरी के दोष ( अपराध ) से चोरी न करनेवाले ( सचे) आदमी से भयभीत होता है-उसे भी चोर समझता है उसीप्रकार सदाचारी मनुष्य दूसरे दुराचारी मनुष्य में प्रायः करके अपने समान सदाचारी होने की संभावना करता है। अर्थात् उसे भी सदाचारी समझता है ॥१२२॥ इसलिए हे राजन् ! नष्ट आचारवाले उस 'पामरोदार' नामके मन्त्री को और विचार-शून्य मन के महावाले आपको लक्ष्य करके उन-उन जगत्प्रसिद्ध ऐसे कवियों द्वारा, जिन्होंने भुवन (लोक) प्रकाशित करने में सूर्य को तिरस्कृत किया है, अर्थात् जो भुवन को प्रकाशित करने के लिए सूर्य- सरीखे हैं, रचे हुए ऐसे पर्यो (लोकों) को सावधानता पूर्वक श्रवण कीजिए, जो कि प्राय: करके आपका पूर्वपक्ष स्थापन नष्ट करते हैं। अर्थात्- आपने जो पूर्व में कहा था कि वह 'पामरोवार नाम का मन्त्री निर्लोभी, दयालु ब सदाचारी है, उसको प्राय: करके अन्यथा (विपरीत - उल्टा) सिद्ध करते हैं और जो निन्द्य पुरुष (दुष्ट मन्त्री - आदि) का चरित्र सूचित - प्रकाशित करनेवाले हैं।
हे राजन् ! उन कवियों में से 'तरुणीलीला बिलास' नाम के जगत्प्रसिद्ध महाकवि की ऐसी पद्य ( श्लोक ) रचना भ्रमण कीजिए, जिसमें दुष्ट मन्त्री का नष्टचरित्र गुम्फित किया गया हैनिम्नप्रकार दो लोक दुष्ट मन्त्री के पुराण-प्रारम्भ में आठ पदवाली नान्दी ( मङ्गलसूत्र ) रूप में कहे
गए हैं
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* 'शुः स्पष्टच पाठः ६० लि० सटि● ० ० प्रतियुगलात्संकलितः । मु० सटीको तु'तैस्तैराटपेनचेष्टितरविभिः' इति पाठः । विमर्श —पद्यपि अर्धभेदो नास्ति तथापि ह लि. सटि० प्रतियुगले वर्तमानः पाठः विशेषशुद्धः स्थ–सम्पादकः
'प्रहसनानि' । "प्रहृततानि ब० । ( भु. प्रतिक्त् ) । १- निरपुस्वस्व' इति टिप्पणी । १. टान्ताकार । २. रान्ताहर ।
↑ 'तरुनीौलाषिलासादिकाः संज्ञाः अस्यैव कवेः समशीलत्वाहा इति टिप्पनीकारः क० भर्कात्~~'तरुपौलीलाविलास' -आदि नाम प्रस्तुत प्रत्यकत्र्ता महाकवि ( श्रमत्तोमदेवसूरि ) के हो समझना चाहिये, ओ कि हास्यरस-प्रिय है, सम्पादक ।
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