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यशस्सिलकपम्पूकाव्ये देव, स भर्तुरेव दोषोऽयं स्वच्छन्द यतिकुर्वते । आत्मातिरिक्तभायेन दारा इव नियोगिनः ॥ १० ॥ पर धारण किये जाते हैं इसीप्रकार भूर्ख एवं असहाय राजा भी राजनीति में प्रवीण और सुयोग्य मन्त्रियों की अनुकूलता से शत्रुओं द्वारा अजेय होजाता है। वल्लभदेव' विद्वान् ने भी कहा है कि 'साधारण मनुष्य भी उत्तम पुरुषों की संगति से उसप्रकार गौरव (महत्व) प्राप्त कर लेता है जिसप्रकार तंतु पुष्पमाल के संयोग से शिर पर धारण किये जाते हैं। दूसरे दृष्टान्त द्वारा उक्त सिद्धान्त का समर्थन करते हुए आचार्य श्री ने कहा है कि "जव अचेतन और प्रतिमा की आकृति को धारण करनेवाला पाषाण भी विद्वानों द्वारा प्रतिष्ठित होने से देवता होजाता है-देवता की तरह पूजा जाता है तब क्या सचेतन पुरुष सत्सङ्ग के प्रभाव से क्षतिशील नहीं होगा ? अपि नु अवश्य होगा।" : हारीत विद्वान के उद्धरण का भी उक्त अभिप्राय है। उक सिद्धान्त का ऐतिहासिक प्रमाग द्वारा समर्थन करते हुए लिखा है कि 'इतिहास बताता है कि 'चन्द्रगुप्त मौर्य (सम्रा नन्द का पुत्र) ने स्वर्य राय का अधिकारी न होने पर भी विष्णुगुप्त (चाणक्य ) नाम के विद्वान् के अनुग्रह से साम्राज्य पद प्राप्त किया। शुक्र विद्वान् के उद्धरण का अभिप्राय भी यही है कि 'जो राजा राजनीति में निपुण महामात्य-प्रधानमंत्री की नियुक्ति करने में किसीप्रकार का विकल्प नहीं करता, यह अकेला होता हुआ भी राज्य श्री प्राप्त करता है। जिसप्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य ने अकेले होने पर भी चाणक्य नाम के विद्वान महामात्य की सहायता से राज्य श्री प्राप्त की थी॥१॥ प्रकरण में 'शजनक' नाम के गुप्तचर ने यशोधर महाराज से सत्संग व कुसंग से होनेवाली क्रमशः लाभ-हानि का निर्देश करते हुए उक्त उदाहरणों द्वारा उक्त बात का समर्थन किया है ॥ ११ ॥
हे राजम् ! जो मन्त्री-आदि अधिकारी-वर्ग अभिमान-घश स्वच्छन्दतापूर्वक विक्रिया करते हैंस्वेच्छाचार पूर्वक मर्यादा ( सदाचार) का उल्लङ्घन करते हैं। अर्थात्-प्रजा से लाँच-घूस-आदि लेकर उसे सताते हैं, इसमें राजा का ही, जो कि उन्हें उदएड बनाता है उसप्रकार दोष-अपराध है जिसप्रकार नियाँ अभिमान-श स्वच्छन्दतापूर्वक विक्रिया करती है-सदाचार का उल्लङ्घन करती है-उसमें उनके पति का ही दोष होता है। अर्थात्-जिसप्रकार अभिमान-वश स्वेच्छाचार पूर्वक सदाचार को छोड़नेवाली त्रियों के अपराध करने में उन्हें उद्दण्ड बनानेयाले पति का ही अपराध समझा आता है इसीप्रकार गरे के कारण स्वेच्छाचारपूर्वक मर्यादा का उल्लान करनेवाले अधिकारियों के अपराध करने में भी उनकी देखरेख न करनेवाले और उन्हें उदण्ड बनानेवाले राजा का ही अपराध समझा जाता है ॥१२०॥ १. सपा च वामदेवः--उत्तमानां प्रसोरेन लपवो यान्ति गौरई। पुष्पमालाप्रसङ्गेन सूत्रं शिरसि धार्यते ॥५॥
नौतिवाक्यामृत पृ. १५३ से संकलित-सम्पादक २. तथा च सोमदेवः -महद्भिः पुरुषैः प्रतिष्ठितोऽरमापि भवति देवः किं पुनर्मनुष्यः ॥५॥ २. सया य हारीतः-पाषाणोऽपि च मिनुधः स्थापितो यः प्रजायते । उत्तमैः पुरुषैस्तैस्तु किं न स्मान्माषुषोऽपरः ॥१॥ ४. सथा च सोमदेवमूरि:-तथा चानुश्रूयते विष्णुगुप्ताभुमहापनधिकृतोऽपि किल चन्द्रगुतः सामाज्यपदमपाऐति ॥1॥ ५. तपा च शुक्र:- महामात्यं वरो रामा निर्विकल्पं करोति यः । एकशोऽपि महीं लेभे हीनोऽपि वृहलो यथा ॥५॥
____ नीतिवाक्यामृत ( भाषाटीका-समेत ) पृ. १५३-१५४ (मन्त्रिसमुरे) से संकलित-सम्पादक १. दृष्टान्सासकार । ५. उपमालाहार ।