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यशस्तिलकपम्पूकाव्ये नमो दुर्मन्त्रिणे तस्मै नपडिपमहाहये। श्यामाथिसंप्रास्तायाश्रमविश्रमः ॥ १३ ॥ भएपदा मान्दी। पस्य शिष्टघटोच्छेदि मन्त्रसूत्र विशम्भते । सरूपाप्रपाचिने तस्मै नमो दुर्मबिक्षिणे ॥ १२४ ॥ इर्थ छ ।
और्वायारूपाय तस्मै दुर्मन्त्रिणे नमः । मनडा अपि शोष्यन्ते येन पत्युः श्रियः परा ॥१३६॥ यं च द्वादशपदा । सत-चापमामाकृतिः शित्तिपतिनाभवनायकः पौरो भाग्यपुराणपालिसमतिमंन्त्री धवित्रीपतः । स प्रौढोतिवृहस्पतिश्च तरुणीस्त्रीलाविलासः कविसर्मन्निदुरीहित विजयते सूकोस्कर नाटकम् ।। १२६ ॥
राजारूपी वृक्ष पर लिपटे हुए महान् सर्प-सरीखे उस दुष्ट मन्त्री के लिए नमस्कार हो, जिसके प्रभाव से राजारूप वृक्ष की छाया में स्थित होकर विश्राम करना याचकों के लिए सुलभ नहीं होता। भावार्थ-इस श्लोक में जो दुष्ट मन्त्री को नमस्कार किया गया है, वह उसकी हँसी-मजाक उड़ाने के रूप में समझना चाहिए न कि वास्तविक रूप से। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार जिस वृक्ष पर महान साँप लिपटे रहते हैं, उसकी छाया में विश्राम करना खतरे से खाली नहीं होता, उसीप्रकार जिस राजारूपी वृक्ष पर दुष्ट मन्त्रीरूपी महान साँप लिपटे हुए होते है उसकी छाया में ठहरकर विश्राम करना भी खतरे से खाली न होने के कारण याचकों के लिए सुलभ नहीं होसकता ।। १२३ 1। उस दुष्ट मन्त्रीरूपी कुंभार के लिए नमस्कार हो, जो सामानों (सजन पुरुषों ) को सपकार सन्नापिन (फ्लेशिस) करता है जिसप्रकार कुंभार सत्पात्रों ( समीचन घट-आदि-वर्तनों ) को सन्तापित करता है। अर्थात्-अभि के मध्य
हालकर पकाता है। इसीप्रकार जिसका ऐसे मन्त्र (राजनैतिक सलाह) को सचित करनेवाला सत्र-शाला कपट-पूर्ण राजनैतिक ज्ञान), जो कि शिष्ट पुरुषों की घदा (श्रेणी समूह) की उसप्रकार विदारण करता है जिसप्रकार कुंभार का सूत्र ( डोरा ) बनाए हुए. घटों को विदारणा करनेवाला होतर है:।। १२४ ।। उस दुष्ट मन्त्रीरूपी नवीन मूर्तिवाले बड़वानल को नमस्कार हो, जिसके द्वारा राजा की तस्कृष्ट लमियाँ ( धनादि सम्पत्तियाँ) अजड़ ( अजल-जल-रहत) होती हुई भी शोषण की जाती है-पी जाती हैं। अभिप्राय यह है कि समुद्र की बड़वानल अग्नि द्वारा केवल सजह (सजलअलराशि-पूर्ण ) समुद्र ही शोषण किया जाता है, जब कि दृष्ट मन्त्रीरूपी बड़वानल अनि द्वारा राजा के साथ-माथ उसकी अजड़ । अजल-जल-शून्य ) लक्ष्मियाँ भी शोषण ( पान ) की जाती हैं (नष्ट की जाती है )३६।। १२५ ।। इसलिए ऐसा बह जगत्प्रसिद्ध, दुष्ट मन्त्री की कुचेष्टा-(निन्ध अभिप्राय ) युक ष मधुर वचनों की विशेषताशाली नाटक सर्वोत्कृष्ट रूप से प्रवृत्त हो, जिसमें (जिस नाटक में) एण-निर्मित पुरुष की आकृति धारण करनेवाला (तृण-निर्मित पुरुष के सदृश) राजा नायक ( नाटक-प्रमुख ) हुआ है। अर्थान-जिस प्रकार तरण-निर्मित पुरुष कुछ भी कार्य करने में समर्थ नहीं होता उसीप्रकार तण-निर्मित पम्प के समान राजा भी कछ भी (प्रजापालन-आदि) कार्य करने में समर्थ नहीं है। अतः ऐसा नगण्य राजा ही जहाँपर नाटक का प्रधान हुआ है और जिसमें ऐसा नगरवासी जन-समह सभासद हुआ है, जिसकी वृद्धि भाग्य (पूर्वोपार्जित पुण्य) से उत्पन्न हुए पुराण (कथा-शास) द्वारा सुरक्षित की गई है। अर्थात्-जिन्होंने पूर्वजन्म में पुण्य किया है उन भाग्यशाली
* 'यशाम्नार्थिमं प्राप्यस्वच्छ.याश्रमविभ्रमः' क. घ.1 • 'पौरोभाग्यपुरापालितमतेमन्त्री धवित्रीयुतः। घर ! विमर्श-परन्तु मु. सी. प्रती बगनः पाठः सम्यक् ।
१. रूपकालंकार । 1 अष्टपदा मान्दी-मलमूत्रम् । २. रूपकालझार । अष्टपदा नान्दी ( मालसूत्रम् ।। क्योंकि श्लेष में '' और 'ला एक गिने आते हैं। ३. रुपक व व्यक्तिरेक-अलकार । मादधपदा नान्दी ( मङ्गलसूत्रम् )