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यशस्तिनकचम्पूछान्ये लक्ष्मीरिय स्वमपि माधव पर साक्षादेश शची सुरपतिस्त्वमपि प्रतीतः । आमास्यते तविह किं भवबोरिवानी प्रीतिः परं रखिमनोमायोरिखास्तु ॥२१॥ एषा हिमांशुमणिनिर्मितयेहपहिस्स्वं पूरचितावरच साक्षात् । एवं न बेत् कयमियं सर संगमेज प्रत्यङ्गमिर्गतका मुसमुस्कासि ॥११॥ स्वं चन्द्ररुचिरा सत्य कमललोचना । स्वपाम्यया रहा भोल्कुलमखितेक्षणा ॥२१॥ उक्का कि म किंचियुमियं नालोरितालोको सम्या विहिवाममा च विद्यशश्वासोल्न पठे। नौलापविधौ सकोपादा गम्तुं पुनर्याश्यति प्रीवि कस्म तथापि मो बिसनु बाला म संगमे ॥२१॥ किंचिकेकरवीक्षितं किमपि च भूभालीलावित किंचिन्मम्मनभाषित किमपि प रषाभिलाषेहिसम् । इथं मुग्धतया बहिलिसितं वध्या नवे संगमे चिचस्पेन मनोभुवा बलवता नीही खलत्वं कृतम् ॥१९॥
हे राजन् ! यह 'अमृतमति' महादेवी लक्ष्मी है और आप भी साक्षात् श्रीनारायण ही हैं। यह इन्द्राणी है और आप साक्षान् विख्यात इन्द्र ही हैं। अतः आप दोनों को इस प्रसङ्ग में क्या आशीर्वाद विया जाय ? मेरे द्वारा केवल यही आशा की जाती है कि आप दोनों दम्पति का ऐसा उत्कृष्ट डेम हो जैसा रति और कामदेव में होता है ।।२१५ ।। हे पजन ! इस अमृतमती महादेवी का उत्तम शरीर चन्द्रमन्त मणियों से निर्मित हुआ है और आपका सुन्दर शरीर चन्द्र-चूर्ण से रचा गया है। हे देव ! यदि ऐसा नहीं है तो यह सुन्दर शरीरवाली अमृतमति महादेवी आपके संगम से समस्त अंगों से प्रकट हुए बलों ( स्वेद-जल ) से व्याप्त हुई किसप्रकार शोभायमान हो सकती है? ॥२१॥ हे राजन् ! आप चन्द्र के समान कान्तिशाली हैं और यह देवी निश्चय से कमल के समान सुन्दर नेत्रोंवाली है, धन्यथायदि ऐसा नहीं है तो आपके द्वारा दर्शन की हुई यह संकृषिस नेत्रोंवाली क्यों होजाती है?
___भावार्थ-जिसप्रकार चन्द्रोदय से कमल संकुचित होजाते हैं उसीप्रकार इसके नेत्रकमल भी चन्द्रजैसे आपके संसर्ग से संकुचित होजाते हैं, अतः निस्सन्देह बाप चन्द्र हो और इस महादेवी के नेत्र कमल सरीखे मनोक है ।। २१७ ॥ हे राजन् ! यह महादेवी आपके द्वारा वार्तालाप की हुई लाश कुछ भी उच्चर नहीं देवी । आपके द्वारा निरोक्षित ( प्रेमपूर्वक देखी ) हुई यह अापकी ओर नहीं देखती और रतिविलास के अवसर पर पलंग पर प्राप्त हुई यह पराधीन श्वासोच्छवासों की व्याप्तिपूर्वक कम्पित होती है एवं आपके द्वारा हँसी-मजाक किये जाने पर कुपित चित्त होती हुई वहाँ से भागना चाहती है। तथापि प्रथम मिसन के अवसर पर पाला (नव वधू ) किस पुरुष के हृदय में प्रेम विस्तारित नहीं करती? अर्थात्-सभी के हृदय में प्रेम विस्तारित करती है। ॥ २८ ॥ नई बहू के साथ प्रथम मिलन के अवसर पर उसकी मुग्धवा ( कोमलता ) षश निम्रप्रकार वाम विलास ( श्रृंगाररस-पूर्ण हाव-भाष-श्रादि चेष्टाएँ ) होता है। उदाहरणार्थ-उसकी चितवन कुछ थोड़ी कटाक्ष-लोला-युक्त व भ्रुकुटियों ( भोंहों ) की उपक्षेप शोभा से सहित होती है और उसकी वाणी लज्जावश कुछ अस्पष्ट होती है तथा येष्टा [अपने प्रियतम करे ] प्रेमपूर्वक आलिङ्गन करने की ऐसी इच्छा-युक्त होती है, जो कि वचनों द्वारा निरूपण करने के लिए अशक्य है। इसी अवसर पर मनमें स्थित हुए प्रौढवर ( विशेष शक्तिशाली ) कामदेष द्वारा कुछ समय तक कटि (कमर) वरुवन्धन की दुष्टता रची गई। अर्थात् कटिबन्धन-बल कुछ समय तक अर्मला (वेदा) सरीखा होकर रतिविलास मुख में बाधा-जनक हुआ ॥२१६ ।।
1'दिवा ' १ अनुमानालंकार । २ अनुमानालंकार । ३ अर्थान्तरन्यासालङ्कार । ४. उपमालहार ।