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________________ द्वितीय आधासः पुना सारस्वतसर्ग इव धृतधवाल्माल्यविलेपनाचारः, समारक्षणदक्षागरमसारः, समाश्रित्य *मार्जनीयं देशमाचरितोपानः, कुशपूलपानीयपरिकरियससककोपकरणप्रोक्षणः, पर्युपास्यासुतोवलद्वितीयः पृषदाज्येनामिक्षया । समेधितमहसं द्रविणोदशमनेकविश्ववस्तुव्यस्वहस्तैर्निवर्तितमज नकर्मभिर्यायजूफलोनित वातृकमन्त्राशीवाइविधिभिर्यधाविधानम्. 'अहो लक्ष्मीनिवासमय, विलासिनीविनोदचन्द्रोदय, श्रीमतीपसिश्रीवर्मनुपमन्दनामृतमशीमहादेषीपुर:समामिमहामण्डलेश्वरपसिवराभिः शतनन्द हय अतिभिः, साण्डबोधानदेश इथ मामिः, समुवीयोदकाभोग इव वेलानदीमिः, प्रथमतीकरावधारसमय इन रक्षवृष्टिमिः, निविपर्यत व नक्षत्रपक्तिभिः, पार्वणेन्दुरिव कलामिः, सरोवकाश इव कमसिनोमिः, माधव इव बनलक्ष्मीमिः समम् चहल थे और जिन्होंने कमर के अप्रभागरूपी वालुकामय प्रदेश विशेष रूप से ऊँचे किये थे ; इसलिये जो उसप्रकार शोभायमान होरही थी जिसप्रकार नदी-प्रवाह उक्त गुणों से शोभायमान होते हैं। अर्थात्-जिसप्रकार नदी-प्रवाह पश्चन तरङ्ग-शाली, हिलनेवाले कमल-समूह से व्याप्त, चकवा-चकवी युगल के संवार से सुशोभित, चश्चल मध्यभागों से युक्त और ऊँचे बालुकामय प्रदेशों से अलत होते हैं' ।।२१४॥ दोनों ऑभषक-उत्सवों के पश्चात --उज्वल पट्टदुकूल ( रेशमी शुभ्र दुपट्टा), पुष्पमालाओं, कस्तूरी व चन्दन-आदि सुगन्धि द्रव्य-लेपों व आभूषणों से अलकत हुश्रा मैं उसप्रकार शोभायमान हो रहा था जिसप्रकार सरस्वती-सृष्टि शुभ वल, पुष्प-मालानों व चन्दनादि सुगन्धित द्रव्यों के लेप और आभूषणों से अलङ्कत हुई शोभायमान होती है। चारों तरफ से रक्षा करने में समर्थ शक्तिशाली सेनावाने मैंने हस्ता-पादप्रक्षालन-योग्य स्थान पर आकर आचमन-(कुरला ) विधि की। वत्पश्चात्-मैंने हाभ से पषित्र जल द्वारा समस्त पूजनादि के उपकरण पात्रों की प्रोक्षण ( अभिषेचन ) षिधि की और यज्वा ( पुरोहित). से सहित हुए मैंने दधि-मिश्रित घृत से बदधिमिश्रित अविच्छिन्न दुग्ध-धाराओं से घृत द्वारा प्रज्वालित को गई. अग्नि की, ऐसे अनेक इवन करनेवाले लोगों के साथ, जिनके करकमलों पर नानाप्रकार की माङ्गलिक वस्तुएँ ( नारियल, खजूर व केला-आदि ) विद्यमान थीं, जिन्होंने अग्रिहोत्र ( हवन ) विधि सम्पन्न की थी और जिन्होंने घायुवक पुण्य मन्त्रों द्वारा [वर-वधू को ] आशीर्वाद दिया था, पूजा की। अर्थात्-विवाइहोम किया। तत्पश्चात् 'मनोजकुअर नाम के ऐसे स्तुतिपाठक से, जो कि मेरी ब मेरी प्रिया अमृतमति महादेवी के गुणगान कर रहा या, निम्नप्रकार गद्य-पवरूप पचन अषण करता हुआ मैं विवाह-दीज्ञापूर्वक गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हुधा और राज्यमुकुट से अलङ्कृत हुआ। 'लक्ष्मी के निवासभूत हृदययुक्त व कमनीय कामिनियों की क्रीड़ा-हेतु चन्द्रोदय-सरीखे हे यशोधर महाराज! आप ऐसी महामण्डलेश्वर राजाओं की कन्याओं के साथ, जिनमें श्रीमती नामकी पट्टरानी के पति श्रीवर्मा राजा की पुत्री अमृतमति महादेवी प्रधान है, उसप्रकार प्रीतिमान होवें जिसप्रकार ब्रह्मा येदिक पाणियों से, स्वर्गलोक का उद्यान-प्रदेश कल्पयल्लियों से, समुद्र-संबंधी जखराशि का विस्तार समुद्र-समीपवर्ती या तटवर्ती नदियों से प्रोतिमान होता है एवं जिसमकार ऋषभदेव तीर्थकर का जन्मकल्याणक महोत्सव रत्नवृष्टि से और सुमेरुपर्वत नइत्रपक्तियों से, पूर्णिमासी का चन्द्र कलाओं से य जिसप्रकार वालाव-प्रदेश कमलिनियों से एवं जिसप्रकार वैसाखमास या षसन्त वन की पुष्प-फलादिरूप लक्ष्मी से प्रीतिमान या शोभायमान होता है। * 'भाजलीय (हस्तपादप्रक्षालनोचित स्थानं ) १०, ख०, ग०,। १. रूपक व उपमालाहार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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