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द्वितीय आश्वासः
दिवसे छोडीजावर्तसे भवनधनविकासे मन्यमाखापहासे ।
शिविरमण तव स्वात् स्फार माङ्गारष्टास्ये सरभसम्मका कामडी रहस्ये ॥ २२० ॥
इठि मामतमचिमहादेव च प्रतिपडतो मनोजकुञ्जराद्वन्दिनो वचांसि निरमपन, किल साई संजग्मे संपादिवाश्रमदीक्षाभिषेकरच
करमपुरोधसां वदनु दक्षिणवृत्तिभिरिनिवैः । धरानस्विनैः विपुलैर्ध्वनिभिश्च जयावहैः ॥ २२१ ॥३ समानन्दितमतिविधायात्मनस्तचरित्रतयस्य च पबन्धोत्प्रवमिति मनेकविद्दिवमायुपचर्य राज्यलक्ष्मी
चिकानि संभाव्य च ।
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अपहरित पुष्पमयकमावयोधनाद्देव | अधरितसकलमहीधरमरभाति वडापत्रमिमेकम् ॥ २२३ ॥ द्वारिस स्थितः । आरोहतां क्षितीशानां सिंहः सिंहासनं नृपः ॥२२३॥
पृथिवीनाथ ! एकान्त स्थान में नई बहू के ऐसे मुख पर यापकी कामक्रीड़ा उत्कण्ठा के साथ वेगपूर्वक हो, जिसमें केशपाश की स्थिति रतिविलास के कारण शिथिल हो रही है। जिसमें काम कीड़ा के अवसर पर कर्णपूर ( कानों के आभूषण ) चंचल होरहे हैं। जिसमें नेत्रों के चेष्टित ( शृङ्गाररस- पूर्ण तिरछी चितवन- यदि विलास ) नवीन हैं और जिसमें अस्पष्ट शब्द-युक्त हास्य वर्तमान है एवं जिसमें प्रचुरतर ( अत्यधिक ) शृङ्गाररस का नृत्य होरहा है ।। २२० ॥
हे मारिवस महाराज ! तदनन्तर इस्वी, अन्ध ( घोड़े ), अग्नि और पुरोहित के दक्षिण पार्श्वभाग पर संचार करने के फलस्वरूप एवं कर्णामृतप्राय सुखद, मेघ ध्वनि सरीखीं नगाड़ों, शलों व कोकिलाओं की ध्वनियों के श्रवण द्वारा तथा 'जय हो', 'चिरञ्जीवी हो', 'आनन्दित होओ' व 'वृद्धिंगत हो' इत्यादि जयकारी शब्दों के श्रवण से मेरा मन विशेष आल्हादित हुआ ।। २२९ ॥ तत्पश्चात् मैंने अपना और हाथी-घोड़े का तथा असमती महादेवी का पट्टमन्धोत्सव सम्पन्न ( पूर्ण ) किया । तदनन्तर छत्र व चमर-ध्याषि राज्यलक्ष्मी चिह्न स्वीकार करते हुए मैंने बन्दीजनों ( खुतिपाठकों ) द्वारा कहे हुए निम्रप्रकार माङ्गलिक श्लोक श्रवण किये-
हे राजन् ! यह प्रत्यक्षीभूत आपका अद्वितीय छत्र, जो कि कुवलय ( पृथिवी मण्डल और चन्द्रपक्ष में चन्द्रविकासी कमज्ञ समूह ) को अवशोधन ( आनन्दित व प्रफुल्लित ) करने के फलस्वरूप चन्द्र को तिरस्कृत करता है एवं कमला ( राज्यलक्ष्मी व सूर्यपक्ष में कमल समूह ) को अवबोधन ( वृद्धिंगत व प्रफुलित करने से सूर्य को जिस करता है। इसी प्रकार जिसने समस्त सद्दीवर (राजा और द्वितीय पक्ष में पर्वत) अघः स्थापित ( तिरस्कृत) किये है। अर्थात् जिसप्रकार चन्द्र व सूर्य उदयाचल के शिखर पर आरूढ़ हुए अन्य पर्वतों को अधः कृत करते हैं उसीप्रकार आपके छत्र द्वारा भी समस्त राज-समूह अधः स्थापित ( सिरस्कृत ) किये जाते हैं ।। २२२ | ऐसे यशोधर महाराज, जो कि समस्त राजाओं में सिंह सरीखे ( महा प्रतापी ) हैं क्योंकि जिन्होंने शत्रुरूपी हाथियों का मव धूर-दूर किया है और समस्त भूभ्रुवों ( राजाओं और द्वितीय पक्ष में पर्वतों ) के मस्तकों व शिखरों पर अधिष्ठान किया है राजसिंहासन पर आरूद होवें ॥ २२३ ॥
१. अत्र शृङ्गाररस: ( माररस-प्रधानं पयमिदं ) ।
२. जाति अलंकार । ३. रिलष्टोपमालंकार | ४ हेतूपमालंकार ।