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________________ पर स्तिवकपम्पूचव्ये स्मासिस्मानाबमा निभिरसनो भाजनैश्वर्यव। बनिवलपबोकानस्पम्पप्रमोषः क्षितिक्ष्मण सम्हारे पापस्तवास्तु ॥१४॥ विवियपानिदनानिरूपमः । चामः सेव्यतां देवः पीकतामोपदासिमिः ॥२२॥ स वायम्-क्ष्मीविनोदासदाकरचन्द्रहासः संप्रामकेसिनसिनीवनसूहासः । विशिष्टदैत्यममाम्बहराहासः कीतिस्पिानिनवनोदयमोदहासः ॥२२॥ मम्मे भुजामनेस्मिशास्त्री विश्ति कृपाणे। स्मिक स्थिति कम्पित एच कम्पं कुयोग्यथा ना करोति तस्याः ॥२२॥ एकमही सब कोमाधि पापे पान्तसलिनि गुणे स्वपि सङ्गता श्री।। दखानुवर्तिनि गरे तब देव जाते माता न के स्वादलिपरामरेखाः ॥ २१८ ॥ है पृथिवीनाय ! आपके ऐसे मस्तक पर, जो कस्तूरि-तिलक से विभूषित और अष्टमी-चन्द्रसमान उन्मल तथा समुद्ररूप मेख्ला (करधोनी) चाली पृथिवी के स्थान का स्वामी होने के कारण श्रेष्ठ है, ऐसा पट्टबन्ध ( राजमुकुट ) मस्तकालङ्कार हुआ सुशोभित होचे, जिसने समस्त लोकों को बहुत से करोड़ों वर्ष बक श्रानन्द उत्पन्न किया है। ॥२२४ ।। प्रस्तुत यशोधर महाराज के ऊपर ऐसे कमर डोरे जावे, जो कि शत्रुओं को उत्कटतारूपी निघूम दीपक ज्यालाओं को बुझानेवाली वायु से मनोहर है एवं लस्मी के कटाक्षों का उपहास करनेवाले हैं। अर्थात्-जो लक्ष्मी के कटाक्ष-जैसे शुभ्र हैं ॥ २२५ ।। राजन् ! यह आपका ऐसा खड्ग, जो कि लक्ष्मी की क्रीडारूप कुमुद (चन्द्र-विकासी कमल) समूह को विकसित-अफुस्तित-करने के लिए चन्द्र-ज्योत्स्ना के सदृश है। अर्थात्--जिसप्रकार चन्द्र-किरणों द्वारा करव पुष्पसमाह प्रफुल्लित होते हैं उसीप्रकार आपके खङ्ग से राज्यलक्ष्मी की कीड़ारूप कुमुद-वन विकसित व बुद्धिंगत होता है और जो युद्ध की कीदारूप कमलिनियों के वन को प्रफुल्लित करने के हेतु सूर्य-तेज है। अर्थात्जिसपर सूर्य की किरणों से कमलिनी-समूह प्रफुल्लित होता है उसीप्रकार आपके सूर्य-सएश खडसे युद्ध करने कोहारूप काखिनियों का समूह प्रफुल्लित होता है एवं जो शत्रुरूप दानवों के मद की मन्दता (हीनता)के प्रलय (नाश) करने में रुद्र का अट्टहास है। अर्थात्-जिसप्रकार रुद्र के अहास से दानवों का दर्प घर-चूर शेजाता है उसीप्रकार अापके खङ्ग के दर्शन-मान से शत्रुरूप दानषों का मद चूर-चूर होजावा है। इसीप्रकार जो आपको कीर्तिरूपी स्त्री का तीन लोक में प्रसार होने के कारण उत्पन्न हुए हर का हास्य ही है। ॥२२६ ।। हे राजन् ! प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाले आपके ऐसे इस खा (तलवार ) पर, जो कि आपके बाहु-प्रदेश का आभूषण है, ऐसा मालूम पड़ता है मानो-तीन लोक निवास करते हैं। भन्यवा-यदि ऐसा नहीं है। अर्थात् यदि इस पर तीन लोक निवास नहीं करते तो भापकी भुजाओं पर स्विट हुया यह खा) तीन लोक की स्थिति ( मर्यादा) पालन क्यों करता है? एवं कम्पित किया हमा यह तीन लोक को कम्पित ( भयभीत ) क्यों करता है? ॥ २२४ ! हे राजन् ! जब पाप धनुष हस्त पर धारण करते हैं तम यह पृथिवी आपके अधीन होजाती है और जब आप धनुष की डोरी कानों तक सोचते हैं तब तरमी ( राज्यविभूति) का आपसे मिलन होजाता है। इसीप्रकार जब बाप बाण को बस (बीपने योग्ब शत्रु-यादि) के सन्मुख प्रेरित करते हो सब कौन से राजा लोग आपके सेबक नही होते? अपि तु समस्त राज-समूह आपका सेवक होजाता है ॥२२८ ।। १. हेतूएमालंकार । २. रूपक व उपमालंकार । ३. समकालंकार । ४. भमानासकार । सोधिन्पाकार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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