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________________ द्वितीय भाश्वासः . मन्त्रिपुरोहितमहामात्यसेनाधिपतिसम्मः पूर्णपात्रदायनकप्रसादसंप्रदायैः समस्तमनुरागरहोत्सर्पलप्रमोदोत्सर्ग विवातिपरिजनसामन्तवर्गमाचरितगजवाजिनीराजना समरसकथावरीयोभिर्विहितसर्वसनहनपोषणैरनम्यसामान्यजन्याजित कीर्तिप्रसाधनपुनरुक्तासंकारविधिभिः सकललोकविधीयमानयशश्चन्दनवन्तनैनिवासकवचनिचितादयष्टिभिः परशराप्त पुरूपरपरेवास्मसमसंभावनेः कृपाणपाणिभिरप्रेसर रैः परिवृतः, समन्तादिस्वरैरनवरतमशेषसत्त्वापदारव्यवहारघरध्वनिभिवातदीर्घदण्डविम्बितदोर्दण्डमण्डलैः प्रशास्तृमिरप्रेगूमिश्च गोलधनुर्धरगोनाधिष्टितवृत्तिभिर्वातारवैरुखस्याण्डकपोगण्डबादिकाचोकसमुत्पारणशधियोधितमार्गः संजातपरमोत्ससंसर्ग 'इति पुण्यश्लोकालापहवामुभिः कुन्दराघोषितपुण्याहएसम्पर। तत्पश्रात्-मंत्री, पुरोहित, प्रधानमंत्री और सेनापतिरूप मित्रों (अभीष्ट निकटवर्तियों) से विभूषित हुए मैंने समस्त ब्राह्मणवर्ग के लिए दक्षिणा देकर थानन्दित किया और कुटुम्ब वर्ग को वस्मादि लाइनक से सन्मानित कर इषित किया एवं सामन्तों ( अधीनस्थ राजाओं) को प्रसन्नता के दान द्वाप सन्तुष्ट किया। तदनन्तर अकृत्रिम ( स्वाभाविक ) स्नेह की भावना से उत्पन्न हुए हर्ष के उत्साह पूर्वक वहाँ से (महोत्सव मंडप से ) राजधानी ( उचयिनी) की ओर प्रस्थान किया। __ उस समय मैं ऐसे आप्त (भरक्षा में हितैषी ) पुरुषों से बेष्टित था, जिन्होंने याग हाथी ( राज्याभिषेक व विवाह-दीक्षोपयोगी प्रधान हाथी ) और "विजयवैनतेय' नाम के प्रधान घोड़े की नीराजना ( भारती-पूजाविशेष ) विधि की थी। जो युद्ध के समीचीन वृत्तान्तों से विशेष महान हैं। जिन्होंने समस्त सैनिकों को कवच व श्रम-शक्षादि से सुसज्जित होने की घोषण की थी। जिन्होंने अनोखे संग्राम में प्राप्त किये हुए कीतिरूप आभूषण से अपना आभूषण-विधान द्विगुणित किया था। जो समस्त लोक ( बालगोपाल-आदि ) द्वारा गान किये जारहे यरारूप तरल चन्दन के तिलक से अलंकृत थे । अर्थात्-जिन्होंने यश को मस्तकारोपित किया था। जिनकी उत्तम शरीररूपी वष्टियाँ निविह ऋवचों (वस्तरों) से सुसज्जित थीं एवं जो १०० से भी अधिक थे। इसीप्रकार उस समय में, उत्थापित स्वज को हस्त पर धारण करनेवाले और मेरे समान ( यशोधर महाराज के सरश) बीर ऐसे दूसरे विजयशाली पुरुषों से भी वेष्टित था। इसीप्रकार उस समय मैं ऐसे प्रशास्त ( शिक्षादायक ) पुरुषों से अलंकृत था, जो चारों ओर से यहाँ-वहाँ दौड़ रहे थे और निरन्तर समस्त प्राणियों के दूरीकरण-व्यापार में प्रवृत्त हुए कराठाभ्यन्तर-आवर्ती शब्द कर रहे थे। जिनके बाझुदण्ड-मण्डल उन्नत व दीर्घ ( विस्तृत ) दण्डों से तिरस्कृत हुए थे, अर्थात्-दीर्घ दण्डों की सहशता रखते थे एवं उस समय मैं ऐसे अप्रगामी पुरुषों से भी वेष्टित था, जो अपने इस्तों पर गोफरण और धनुष धारण किये हुए सैनिक पुरुषों से वेष्टित ये और जो कपटपूर्ण भाषण करनेवाले थे एवं जो रजस्वला स्त्रियों, नपुंसकों, विकल (हीन) अजवानों व चाण्डाल-आदि देखने के अयोग्य व्यक्तियों को दूर करने में प्रवीण-कुशल थे। उस समय उक्त पुरुषों द्वारा मेरा संचार करने का मार्ग शुद्ध किया गया था। जिस समय मेरे महोत्सव का संगम पूर्ण हुआ उस समय पवित्र श्लोकों के कथन करने में सहदयता रखनेवाले फुलवृद्धों द्वारा मेरी निन्नप्रकार पुण्याह-परम्परा ( पवित्र दिन की श्रेणी) उष खर से चारण कीगई थी।' ।।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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