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यशस्विकचाम्पूकाम्ये रणिपुरमालारसमोरोमागणदीपचनासपत्नाकररापूर्वमोस्।
निसान महोत्सवामगीतप्रसा(मै-मारपि मातमङ्गारवा पापारिक मेदिनीम् । ३२९६ पाचौरवारिकापनिमून पर पयोरासपः सूर्यः शीतचिदियः पुरपति का च सग सह। पतेचा हिगुणीतोपास्तासाम्पभावात्मना तत्वत्वं वितिपाल पालय महीं बावोत्सवः कामिनः ॥ १३ ॥
पोषाः मुभूषार करिणः प्रशस्वा मरास्व रत्नाम्परहेमहस्ताः ।
सप प्रपाने मप संमुखाः स्युः प्रादेशमानीव महीपतीनाम् ॥ १३१॥ भूमालूमम्मबाहेसामसुकोमोर्थन शवों समै नन्याइमिया मालस्वनः ॥ ३२ ॥ मलामेव गौपडीरवदाम्पदिषतामपि । मियातु पद भूनि देवः सर्वजगत्पतिः ॥ २३३ ॥ अपि ममबहामन्त्रसुमगास्तूर्ण कुरु मातीनागिन्द्र प्रदिणु द्विषो विजितये विश्वासमतन्न रथम् । स्पिा युबरेत सत्वरममी देवरुष सेवाविधावित्यं पार्थिधनाथ स्पनरः शङ्खध्वनिम्भिताम् ॥ २३४ ॥
हे राजन् ! दही, दूध, अक्षत, पुष्प, चन्दनरस, गोरोचना की लालसा-युक्त (गोरोचनायुच) पदार्थ, बजार, दीपक की लौ, पंखे, छत्र, दर्पण और जल से भरे हुए घट-समूह, इन शुभ (मालिक) वस्तुओं द्वारा किये हुए आनन्द महोत्सव-शासी आप मुलबधुभों की गान-ध्वनियों सस्य प्रसनीभूत वावित्रों से माङ्गलिक ध्वनि उत्पन किये गए चिरकाक्ष पर्यन्व पृथ्वी का पालन करें। ॥ २२६ ।। हे पृथिवी-पालक यशोधर महाराज ! बार मनोवाला पदामों ही पाटि से नन्द
सन्न करते हुए एवं स्वर्ग सरीखी अपनी मामा के साथ इन स्वर्गादि के जयोषय से विगुणीभूत अबोदक-शानी हुए वब तक इस प्रविषो मण्डल को रक्षा करो जब तक स्वर्ग, पूथिषी, फुलापल, शेष नाग (परणेन्द्र), समुद्र, सूर्य, चन्द्र, पूर्व व पश्चिम दिशाएँ, इन्द्र एवं तीनों लोक के साथ ब्रह्मा की लिवि वर्तमान है' २३॥ हे राजन् ! राजधानी के प्रति आप के गमन-प्रारम्भ के अवसर पर मिनप्रकार की वस्तुएँ आपके सम्मुख उसप्रकार प्राप्त हों जिसप्रकार राजाओं की भेंट आपके सम्मुख प्राप्त होती हैं। बबाहरणार्य-सुन्दर बाभूषणों से सुसज्जित हुई कियाँ, प्रशस्त-सर्वश्रेष्ठ (इस्ति-शाम में कहे हुए जक्षणों से विशिष्ट) हाबी, रम, वल और सुवर्ण को हत्वों पर धारण करनेवाले ममुख्य ॥२३॥
हे राजन् ! अब भाप राजधानी के प्रति प्रयाण कर तब काक वायुकों के साथ अनुलोम (भजन-मापके शरीर के पीछे गमन करनेवाला ) हो एवं गर्दभ भी इस्त-पाचों (वीणा-आदि) के साथ मधुर शब्द करनेवाला होकर भापकी समृद्धि करनेवाला हो ॥२३२॥ यशोधर महाराज भासमुद्रान्त पृथिवी के स्वामी होते हुए ऐसे शत्रुओं के, जो कि शौण्डीर ( त्याग और पराक्रम के अरय स्वाति-प्राप्त) और मधुर वचन बोलनेषाले है, मस्तक पर अपना परण सप्रकार स्थापित करें जिसप्रकार हाथी के मस्तक पर परण स्थापित करते हैं ॥५३३ ।।
हे राजाधिराज श्रीयशोधरमहायज! प्रस्तुत अवसर पर ऐसी शकपनि (शानाद) विस्तृत हो, बो कि ऐसी माराम पड़ती है-मानों-निम्नप्रकार सूचना देने में तत्पर हुई है
'हे विधावा ( अक्षा )! तुम शीघ्र ही ऐसी वेदध्वनियाँ करो, जो कि संग्राम-भूमि पर सपनशील मन्त्रों से इवय-प्रिय हैं। हे इन्! तुम शत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करने के हेतु
अब कोठारितपाऽस्माभिः परिवर्तितः । मु. प्रो 'इमअशुदपाः। हिमव सटि प्रति मुद्रितप्रतिवत्पाठः-सम्पादक
१. समुच्चयालंकार । २. दोपकालंकार। 1. उपमालंकार। ४. सहोषि-मकार । ५. तपमासकार ।