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________________ प्रथम आश्वास २७ गतरालेभ्यश्च विभावर्या तमःसंततिभिरिवानिर्भवतीभिः, गतिवेगविगाजालाक्षिप्माणमहाप्रहमाक्षोभरुषितगगनगामिलोकाभिा, परस्परसंघफुटस्ववाहकोटिरसघण्टाक्ताकर्णनावतीर्णननारदजनित लक्ष्यामिः, कपर्दनिर्दयसंमर्दनिर्मोदालगईगलगुहाररस्पू.स्कारस्फारितललाटलोचनानसावालालपितादितिसुतनिकेतमपताकाभोगामिः, शिखण्डमण्टनोडमरमरशिरणिपर्यन्तम्भ्रान्तप्रधद्धनिरुवामनदीधितिप्रवन्धामिर, श्रवणभूषणभुषाविहामिद्यमानकपोलसललिसिवातपस्माभिः, इतरेतनस्किीसफेरकारमयपहायमान हिमकरहरिणपरित्राणोसाहितनक्षत्रमिकनाभिः, वियद्विहाराश्रयश्रमप्रसारिवासरामसनापसारितसरापगापपःस्पर्शप्रकोपिससप्तर्षिभिः, मतियाटप्रवर्दधाराप्रपामधनसंघावनिर्जितवराहषेषविष्णुसमुसतधराकोमाभिः, समारोवकोपरमाकासिमुखरघर्षरकघोरघोषभीषितानिमिपपरिपनि, लिपि कीकसोस्कटकोशेरकोशावकाशतया तारकिशमिम व्योम निमापयन्तीभिः, सकलस्य जगतः क्षयक्षपाभिरिधाविदारणदीर्थदेहा. राजा जिसने प्रलयकालीन सुब्ध हुए सात समुद्रों के शब्दों सरीखे भयङ्कर भेरी-वगैरह बाजों के शब्दों द्वारा पृथिवी मण्डल पर संचार करनेवाली देवियों को हर्ष प्रकट किया है, ऐसे चण्डमारी देवी के मन्दिर में पहुँचा, जिसका प्राङ्गण ऐसी महान व्यन्तरी देवियों से परिपूर्ण था। कैसी हैं वे महान् व्यन्तरी देवियाँ ? जो श्राकाशमण्डल, पृथिवी का मध्यभाग, अधोलोक का मूलभाग और चारों दिशाओं ष विदिशाओं से उस प्रकार विस्तार पूर्वक प्रकट हो रही हैं जिसप्रकार रात्रि में अन्धकार श्रेणियाँ विस्तार पूर्वक प्रकट होती हैं। जिनके शीघ्रगमन की उत्कण्ठा से शिथिल हुए केश-समूहों से तिरस्कृत किये जारहे सूर्यादि ग्रहों व पिशाचों के संचार से, विद्याधर कुपित किये गये हैं। जिन्होंने परस्पर की टकर से टूटनेवाले नरपडरों या डमरुओं के अग्रभाग पर बँधे हुए घण्टों के शब्द श्रवण करने के कारण [ संग्राम होने की भ्रान्ति-वश उत्पन्न हुए इर्ष के कारण ] आकाश में आए हुए नृत्य करनेवाले नारद का नैराश्य (आशा-भक) उत्पन्न कराया है। अर्थात् युद्ध न होने के कारण जिन्होंने संप्राप्रिय नारद की आशा भा कर दी है। जिन्होंने सपों से बँधे हुए जटाजूट का निर्दयतापूर्वक पोड़न-गाढ़-बन्धन–किया है, जिसके फलस्वरूप जिन्होंने हर्षराहत (व्याकुलित ) हुए केशपाश-बद्ध सपों के कंठविवरों से प्रकट हुए फुस्कार-पायु संबंधी शब्दों से विशेष वृद्धिगत हुई तृतीय नेत्रों की अग्निज्यालाओं द्वारा, सूर्यविमान की ध्वजा का विस्तार भस्म ( दग्ध) कर दिया है। जिन्होंने मस्तक के आभरणरूप व विशेष भयानक नरमुण्डों के समूहों के प्रान्तभागोंपर मण्डला. कार स्थित हुए महान् गृद्धपक्षियों से सूर्य की किरण-समूह आच्छादित की है। जिनके गालवलों पर लिखित रुधिर की पत्रिरचना कानों के आभरणरूप सों की जिदाओं द्वारा चाटी जारही है। जिन्होंने ऐसे चन्द्र-मृग की रक्षा करने में, जो कि परस्पर का गमनभङ्ग करने से उत्पन्न हुए द्वेष-वश प्रकट हुई विशेष विस्वत प्रकुटियों के भङ्ग (चदाने ) से भयानक मुखों द्वारा उत्पन्न हुए महान् शब्दों से भय से भाग या है, नक्षत्र-श्रेणी को उत्कण्ठित या पाकुलीकृत किया है। जिनके द्वारा, आकाश गमन संबंधी शारीरिक खेदवश मुख बाहिर निकाली हई अपर्यन्त-बहद-जिरा से निकाले हुए (उच्छिष्ट-अँठे किये हुए) आकाशगङ्गा के जल का स्पर्श करने के कारण मरीचे व त्रि-आदि सप्तर्षि कुपित किये गये हैं। जिन्होंने विशेष रूप से मुख से बाहिर निकले हुए दंष्ट्राकुर के प्रान्त भाग पर स्थित मेघसमूह द्वारा विष्णु की वराह वेष में धारण की हुई पृथिवी की शोभा जीती है। अर्थात्-वराह-चेषधारी विष्णु ने वंष्ट्रा के अप्रभाग द्वारा पृथिवी उठाई थी उसकी शोभा प्रस्तुत महान् ज्यन्तरियों द्वारा जीती गई। जिन्होंने आकाश और पृथिवी भएडल के मध्य में शब्द सहित कीड़ा करनेवाले पादों की व्याप्ति से शब्द करती हुई घुघुर-मालाओं के भयानक शब्दों से देवताओं का समूह भयभीत किया है। हड़ियों के स्कट मुकुटों पर फैलाए हुए केशों के विस्तार से ओ मानों-दिन में भी आकाश को तारकित (सारामों से भलत) कर रही है। जिनका शरीर उसप्रकार अत्यन्त असण्य और विशाल है, जिसप्रकार प्रलयकालीन रात्रियों
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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