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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये वितपस्तुतिमुलषु चिन्तामणेरिख पात:, सकलजनसाधारणेऽपि स्वदो त्रिकमसदीक्षितस्येव देवभयेनाभिनिविशमानस्य, निबाजीवनपरपातु बीपमामस्थाप्यरक्पारणस्पेवावेततः, लालापानिलगलित हितोपदेशावतंसम्प, पन्दनवरिष नाहियूहिववारतरोत्सरतकस्वागावामोजस्व कतिचित् संवत्सरा व तिचक्रमुः ।
स पुनरेवा नपतिरात्मराजपाल्पामेव पण्णमारिंदेवतापा: पुरतः सकलसत्योपसंहासत् स्वयं च सकललक्षणोपरनमनुस्ममिधुमपाश्चिापरलोक विचिनः परवावस्म सिदिभवतीति वीरभैरवनामकारकुनाचार्यकानुपभुत्य खेचरीलोकहोपवावलोकवस्तूस्तिवास्तवैध प्रतिपालदाराधनविधिः, अकालमाहानवमीमहमिषसमाहतसमस्तसामन्तामास्यज्ञानपक्षा, प्रसभित्तसालापरवबोगनवस्वानाधिमावितभुवनान्तासंघावतामदा, ससंरम्नमम्परतलादिलाया: पातालमूलाह
औरधादि के सेवन करने में सरे हितैषी वैधादि के आग्रह से प्रवृत्त होता है। अभिप्राय यह है कि बसे पारलौकिक मुख देनेवाली सदाचार प्रवृत्ति में उमप्रकार स्वयं रुचि नहीं थी जिसप्रकार रोगी पुरुष को आरोग्यता उत्पन्न करने वाली कटु ओषधि के सेवन में स्वयं रुचि नहीं होती। जो (मारिदा ) सत्सङ्ग को बाहर से भी अधिक करदायक मानता था। वह पाप में प्रवृत्त करानेवाले सेवक को पिता से भी अधिक हितेषी समझता था। इसीप्रकार यह उसकी भूठी प्रशंसा करने वालों के लिए चिन्तामणि के समान मन नाही वस्तुएँ (प्रचुर धनादि ) देखा था। समस्त मनुष्य लोक के समान अपने मानव शरीर को वह
समकार देवत्वरूप से मानता था जिसप्रकार सांख्ममत की दीक्षा-धारक पुरुष अपना मानव शरीर देवत्य को प्रास हुभा मानता है। जिसप्रकार विन्ध्याचल पर्वत का हाथी पकड़ने वाले स्वार्थी पुरुषों द्वारा संकट स्थान (गहना) पर प्राप्त कराया हुबा भी अपनी रक्षा का उपाय नहीं सोचता उसीप्रकार अपनी उदरपूर्ति में ता. त्या पुरुषों ( जन्लम्पट कर्मचारियों ) जागा महासंकट ( नाश) के स्थानों में प्राप्त किया जाने वाला मारिदन राजा भी अज्ञान-वश अपनी रक्षा का उपाय नहीं सोचता था। जिसका इसलोक व परलोक में सुख-शान्ति दाबक धर्मोपदेशरूप कर्णाभूषण; दुष्टों की पचनरूप वायु द्वारा नीचे गिरा दिया गया था। अर्वात-जो सदा धर्म से विमुख रहता था। जिसप्रकार चन्दन वृक्ष भयङ्कर सपों से येष्टितरहता है। इसलिए अपनी मलाई (जीषन) चाहनेवाले पुरुष उससे दूर भाग जाते हैं, उसी प्रकार प्रस्तुत मारिदत्त भी दुष्ट पुरुष(सखोर स्वार्थलम्पट नीच पुरुष) समूहरूप सपों से वेष्टित रहता था, इसलिए कल्याण चाहनेवाले लोग उससे दूर भाग जाते थे।'
एक समय उस मारिदत्त राजा ने अपनी राजधानी (राजपुर नगर ) में चार्वाक के कुत्सित शिष्य 'वीरभैरव' नामके कुलाचार्य ( वंशगुरु ) से निम्नप्रकार उपदेश सुना-“हे राजन् ! पण्डमारी देवी के सामने समस्त जीवों के जोड़ों की बलि ( हत्या करना ) रूप पूजन करने से और स्वयं अपने करकमलों से खडद्वारा शारीरिक समस्त लक्षणों से अलंकृत मनुष्य-युगल की बलि करने से आपको ऐसे अनोखे खड़ा की सिद्धि होगी, जिसके द्वारा तुम समस्त विद्याधरों के लोक पर विजय श्री प्राप्त कर सकेगे।" उक्त उपदेश-श्रवण से मारिदत्त राजा के मन में समस्त विद्याधर-समूह पर विजयलक्ष्मी प्राप्त करने की और विद्याधरों की कमनीय कामिनियों के साथ रतिविलास करने की तीव्र लालसा उत्पन्न हुई। इसलिए उसने पूर्वोक्त विधि से चण्डमारी देवी की पूजन विधि करने का दृढ़ निश्चय किया। अर्थात्-उसने चण्डमारी देवी के मन्दिर में शारीरिक शुभलक्षणों से अलंकृत मनुष्य-युगल का षध पूर्वक अन्य दूसरे जीवों के जोड़ों की बलि वध) करने
हद संकल्प कर लिया। इसलिए चैत्र शुक्ला नषमी के दिन कीजानेवाली पूजा के बहाने से उसने अपने अधीनस्थ समस्त राजाओं, मंत्रियों और प्रजाजनों को उक्त मन्दिर में बुलाया। तदनन्तर वह मारिदच
१. संकरालशर ।