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________________ प्रथम भाभास रथमणमाभिवका हवालासकोपि, पूर्णकाराविरिष मधुवनिम्मनोऽपि, बसध्यास हवामोनाभिरतोऽपि, विगतविपणाली सामागमा स्वस्थ वातावanमिनायाणपरम्परामावर एवं वस्य धरोद्धारकुलशिखरिणः करिब स स्वभन्दाचारपागलुषितां निजसलामीमुपपामास, क्षणमिनिमाणामानण्यजननामपति वीरकलावबारामियात्मनि संकल्पपता, परदन परिमामदारुणं नगपादिम्पसलमेर राख क्षत्रपुत्राणां कुलधर्म इसि मभ्यमामस्थ, माषु परिषस्येव मनोविमोया कथास्ववितृष्यतः, परिपाक्गुणकारिणी भिन्यामापत्र परोपरोधानुपयुझानस्य, सत्पुरुषमोठी दिपायनियर परिगणपता, घेतोषिजृम्भगकामनुचरं बतरण्यासवरमधमागल्य, जो उसप्रकार अशासक (इन्द्रिय सुखों मैं अथषा जुआ खेलने में लम्पट) था जिस प्रकार गाड़ी के परिए ब मध्यभाग अनासक्त (दोनो पहियों के बीच में पड़ा दुभा मझ-भोरा-सहित) होता है। जो यसप्रकार मात्र लम्ध-विजुम्भण (जिसने मद्यपान में प्रवृत्ति की है ऐसा) था जिसप्रकार कामदेव मधु-सन्ध-विजृम्भण (वसन्तऋतु के प्रकट होने पर अपना विस्तार प्रकट करनेवाला) होता है। जो मकर-आदि अलजन्तुओं सरीमा आच्छोदनाभिरत था। अर्थात्-जिसप्रकार मकर-भादि जलजन्तु अच्छ-उद-नाभि-रस (स्वच्छ जल के मन में अनुरक) होता है उसीप्रकार प्रस्तुत मारिदा राजा भी आच्छोदन-अभि-रत (शिकार खेलने में विशेष अनुरक्त) था। इसीप्रकार वह, जिसे विपत्तिरूपी पक्षसी का समागम नट होगया है, ऐसा था। भार शत्रुरत उपद्रवों से रहित था, तथापि उक्त दुर्गुणों से युक्त होने पर भी वह अपनी कल्याणपरम्परा (राज्यादि लक्ष्मी से उत्पन्न हुई सुखश्रेणी) को देवत्व के अधीन है उत्पत्ति जिसकी ऐसी मानवा था। अब 'मैं मनुष्य ही हूँ किन्तु देवता हूँ, जिसके फलस्वरूप ही मुझे ऐसी प्रचुर राज्यविभूति-संबंधी कल्याणपरम्परा प्राप्त हुई है। इस प्रकार जनसमूह को सूचित करता था। इसप्रकार अपने पेश की राज्यलक्ष्मी को स्वीकार करते हुए ऐसे उस मारिदत्त राजाके फुलपर्व व्यतीत हुए। कैसा है यह मारिदत्त राजा? जो पृथिषी के उखुरण कार्य के लिए कुलपर्वत सरीखा है। अर्थात्-जिसप्रकार फुलाचल पृथिवी का उद्धरण (धारण) करते हैं उसीप्रकार प्रस्तुत मारिपत्र भी पृथियी का उद्धरण (शिष्ट-पालन और दुष्ट-निमह रूप पालन ) करता था। जो अपनी ऐसी यम्यलक्ष्मी को हाथी सरीखा स्वीकार कर रहा था, जिसे उसने अपनी स्वच्छन्द आचरण रूप धूलि शरा कलुषितर डाली थी। अर्थात्-जिसप्रकार स्वच्छन्द विहार करने वाला मदोन्मत्त हाथी अपनी पीठ की लक्ष्मी (शोभा) को पराग-(धूलि ) प्रक्षेप द्वारा कलुषित ( धूलि-धूसरित ) करता हुआ उसे स्वीकार करता है उसीप्रकार प्रस्तुत मारिदत्त ने भी अपनी स्वच्छन्द ( नीति-विरुव) असस्प्रवृत्ति (परस्त्रीलम्पटना व वेश्श गमनादि) रूप पराग (वोष)द्वारा अपनी वंश परम्परा से प्राप्त हुई उज्वल राज्यलक्ष्मी को कलुषित (मकिन दूषित) करते हुए स्वीकार किया था। जो, केषल क्षणमात्र के लिए चारादि इन्द्रियों को कौतुक वा फराने वाली राक्षसवृत्ति (शिकार खेलना-आदि असुरक्रिया) को अपने चित्त में वीरता की कला के जन्म सरीखी अथवा सुभट विज्ञान की पत्पत्ति-सी समझता था। एवं फलकाल में ऐहलौकिक पारलौकिक पारण दुःखों को उत्पन्न करने वाले शिकार खेलना आदि दुराचारों को क्षत्रिय राजकुमारों का कुलाचार समझता था। जो मारिदत्त, चित्त में भ्रान्ति उत्पन्न करने वाले शाखों के श्रवण करने में उसप्रकार विशेष तृष्णा (भासति) करता था जिसप्रकार मरुस्थल भूमियों पर स्थित हुमा पथिक मानसिक भ्रान्ति उत्पन्न करने वाली कथानों के श्रषण करने के अयसर पर अत्यधिक तृष्णन करता है-अल पीना चाहता है। यह उदयकाल में गुणकारक ( भविष्य में सुख देनेवाले) सदाचार के पालन करने में दूसरे हितैषी पासपुरुषों के बामड्परा उसप्रकार प्रवृत्त होता था, जिसप्रकार रोगी पुरुष, उदयकाल में गुणकारक (आरोग्यताजनक) दुक १. संकरालंकार व इलेषोपमालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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