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________________ यशस्खिलाकचम्पूचने मानिस र म्यसनेषु जसप्रीतिरपि, मगज इस कामवारप्रवर्तयोऽपि, धनुर्मइ वावणितमन्त्रिलोकोऽपि, रविरिष विलयनशमोगपि, बसन्त व विजास्तम्दनोरि, त्रुमादन इन विदूरितकमलोल्लवोपि, पारिपुल रवानात्मनीनतिरपि, कमशीब दोशगमरुधिरपि, कांदिशोक इवानवस्थितक्रियोगपि, प्रसिपचन्द्र इव दुर्दशेपि बचाक हद वारयमितानियोपि, भी अपनी राज्य लक्ष्मी की प्राप्ति-श्रादि सुनसामग्री की परम्परा को देवता के अधीन उत्पन्न हुई के समान सूचित करतः | अक्षर मनुस्य नही हूँ किन्तु देवता हूँ, इसप्रकार सूचित करता था। ओ प्रचण्ड वायु की भाँत्ति व्यसनों में बद्धप्रीति था। अर्थात्-जिसप्रकार प्रचण्ड वायु व्यसनों-वि-असनोंनाना प्रकार के पदार्थों को फैंकने में अनुरक्त होती है उसीप्रकार प्रस्तुत मारिदत्त भी व्यसनों ('वचनों की कठोरता, दृष्ट की कठोरता, धन का दूषण (श्रामदनी से अधिक खर्च करना, पैतृक सम्पन्ति को अन्याय से खाना और स्वयं न कमाना-आदि). "शराब पीना, 'परकी सेवन. "शिकार खेलना व 'जुश्रा खेलना-इन सात प्रकार के कुकृत्यों ) में अनुरक्त-बुद्धि हो करके भी अपने को देवता मानता था। जो उस प्रकार कामचारप्रपर्सन । स्मरपरवशता-कामवासना की पराधीनता में प्रवृत्ति करनेवाला ! था मिसप्रकार, जंगली हाथी कामचारप्रवर्तन स्वच्छन्दता से प्रवृत्ति करनेवाला-होता है। इसीप्रकार उसके द्वारा मन्त्रीलोक (सचिव-समूह ! उसप्रकार अपमानित किये गये थे जिसप्रकार धनुर्ग्रह ( असाध्य प्रहविशेष ) द्वारा मन्त्रिलोक ( मन्त्र तन्त्रवादियों का समूह) तिरस्कृत कर दिया जाता है। जो उसप्रकार कुवलय -- पृधिषीमंडल-का अवेक्षण ( कष्टों को पर दृष्टिपात ) नहीं करता था जिसप्रकार सूर्य, कुपलयों (चन्द्रषिकासी कमलसमूहों । का अवेक्षण (विकास) नहीं करता। जो उसप्रकार विजाति आनम्दन (नीच जातिवाले नट नर्तकादि पुरुषों को आनन्दिन करनेवाला ) था जिस प्रकार वसन्तऋतु वि-जातिमानन्तन--पक्षियों की श्रेणी का आनन्द देनेवाली अथवा वि-जाना-मानन्दन ( मालती-चमेली के पुष्पों के चिस से विगत-राहत होती है। जो उसप्रकार विदूरित कमल-उत्सव था। अर्थात्-जिसने बास्मिक हिंसादि पापों में किये हुए उद्यम क निकटवर्ती किया था जिस प्रकार हेमन्त ऋतु विदूरित कमलोत्सव होता है । अर्थात् कमलों के विकास को विदूारत ( हिम-दग्ध ) करनेवाली होती है। जिसकी वृति ( जीविका व पक्षान्तर में मान्यता ) उस प्रकार अनात्मनान (आत्मकल्याण कारिणी नहीं ) थी जिस प्रकार बौद्ध की वृत्ति ( मान्यता ) अनात्मनीन ( आत्मद्रव्य की सत्ता को न माननेवाली) होती है। जो उसप्रकार दोप-आगम-रुचि (हिंसा पापों के समर्थक शास्त्रों में रुचि ( श्रद्धा ) रखनेवाला अथवा कामादि दोषों की प्राप्ति में रुचि रखनेवाला } था जिसप्रकार चन्द्रमा दोषा-अागम-रुचि ( रात्रि के आगमन में जिसकी कान्ति बढ़ती है ऐसा ) होता है। जो उसप्रकार अनय स्थितक्रिया-युक्त (जिसका कर्तव्य न्यायमार्ग में स्थिर नहीं-न्यायमार्ग का उल्लङन करनेवाले हिंसादि पापकार्यों के करने में तत्पर ) था जिसप्रकार भयभीत पुरुष अनवस्थित क्रिया-युक्त ( निश्चल कर्तव्य न करनेवाला) होता है। जो प्रतिपदा के चन्द्र की तरह दुर्दर्श था। अर्थाम्-जिसप्रकार अमावस्या के निकटवर्ती प्रतिपदा का चन्द्र सूक्ष्मतर होने के कारण दुर्दर्श । पड़ी कठिनाई से देखने में आने योग्य ) होता है उसीप्रकार. मारिवत राजा भी दुदर्श था। अर्धाम्मे वा में आए हुए लोगों को भी जिसका दर्शन अशक्य था। जो उसप्रकार यारबनिता-प्रिय । वेश्याओं से प्रेम करनेवाला ) धा जिस कार चक्रवाक (चकया वार-अयनि-ता-प्रिय (जल-पूर्ण पृथिवीवालाय-आदि-की शोभा से प्रेम करनेवाला) होता है। १. तथा चोक्का--'न स्या जाती घसन्ने' साहित्यदर्पण रातम परिः झोक २५। अर्थात्-कवि समय में ख्यात है किमान्त में जाती (मालवी-चमेली) के पुष्पों का विकसित रूप से वर्णन नहीं होता। सम्पादक
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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