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प्रथम श्रावास
वनस्थलीष्विव सकमलासु, शिशिरशैलसिलास्विर मृगमदामोडमेदुरमध्यासु, कण्ठीरवकण्ठपीठेचित्र सकेसराम, विरहिणीशारीरयटिचिव मृणालनायिनीपु, मन्त्रवादोक्तिश्विन विविधपन्त्रश्लाधिनीथु, वसन्सलतास्त्रि विचित्रपल्लवप्रफलास्काराधिकासु गृहदाधिकासु को पुभिः करीक कामिनीभिः परिवृतो जमकीदासुखमन्वभून् ।।
अन्तलीनसत्त्वः शर्वरीवातून इव रजस्तमोबहुलोऽपि, वनस्थलियों सरीखी सकमल थीं। अर्थात्-जिसप्रकार वनस्थलियाँ सकमल-मृगों से व्याप्त होती है उसी प्रकार ग्रह-बावडियाँ भी मकमल थी। अर्थात-मामलों-कमल पापों अथवा जलों से व्याप्त थीं। जिनका मध्यभाग कस्तूरी की सुगन्धि से उसप्रकार स्निग्ध है जिसप्रकार हिमालय पर्वत की शिलाएँ कस्तूरी की सुगन्धि से स्निग्ध होती हैं। जो सिंहों की प्रशस्त गर्दन-सरीखी सकेसर हैं। अर्थात-जिसप्रकार सिंहों की गर्दन केसरों-गर्दनस्थित बालों की मालरों से व्याप्त होती हैं उसीप्रकार गृह-बावड़ियाँ भी केसरों-कमलकसरों या केसर पुष्पों से व्याप्त थीं। जो विहिणी स्त्रियों की शरीरयष्टि-सरीखी मृणालवलयों से अधिष्ठित है। अर्थात-जिसप्रकार विरहिणी स्त्रियों की शर रष्टियाँ, मृणाल निर्मित कटकों से विभूषित होती हैं { क्योंकि उनकी शरीरयष्टि परिताप-युक्त होती है अत ये शीतोपचार के लिए कमलों के मृणाल धारण करती है ।, उसीप्रकार गृह बावड़ियाँ भी मृणाल-समूहों से विभूपित थीं। जो मन्त्रशारू के वचन-समान विविध यन्त्रों से श्लाघनीय हैं। अर्थात-जिसप्रकार मन्त्रशास्त्र के वचन अनेक सिद्धचक्रादि यन्त्रों का निरूपण करने से श्लाघनीय ( प्रशस्त ) हैं उसीप्रकार गृह बावड़ियाँ भी नाना प्रकार के यन्त्रों-फुब्बारोंधादि-से प्रशस्त थी। जो उसप्रकार विविध भाँ.त के पल्य, फूल व फलादि की प्रचुरता से अतिशय पूजाशालिनी हैं ।जसप्रकार वसन्त ऋतु संबंधी शाखालताएँ अनेक प्रकार के पल्लव, पुष्प व फलादि की प्रचुरता से अतिशय सन्मान-शालिनी हाता है।
जो मा.रदत्त राजा, रात्रे सम्बन्धी प्रचण्ड वायुमण्डल के समान अन्तौनसत्व था। अर्थात्जिस प्रकार रात्रि का प्रचण्ड वायु-भण्डल अन्तलीन सत्व-मध्य में स्थित हुए पिशाच से युक्त होग है उसीप्रकार प्रस्तुत राजा भी अन्तर्लीनसत्व ... शरीर में स्थित हुए चल से वलिष्ट था । अथवा अन्तीन सत्य-जिसका सत्व (पुण्य परिणाम ) अन्तरात्मा में हो लीनता-तन्मयता - को प्राप्त हो चुका है ऐसा था। अर्थान् -उसका पुण्य परिणाम आत्मा में केवल योग्यता ( शक्ति ) मात्र से वर्तमान था किन्तु प्रकट रूप में कुसंग-वश नष्ट होचुका था। इसीप्रकार वह रात्रे सम्बन्धी प्रचण्ड वायुमण्डल के समान रजस्तमोबहुल भी था। अर्थात् -जिसप्रकार रात्रे सम्बन्धी प्रचण्ड वायुमण्डल रजस्तमोबहुलधूलि व 'घन्धकार से बहुल होता है. इसीप्रकार वह मारिदत्त राजा की-राजसी ('मैं राजा हूँ' ऐसी अहंकार-युक्त ) प्रकृति व तामसी'--(दीनता व अज्ञानता-युक्त) प्रकृति की अधिकता से व्याप्त होने पर
* 'पीटीवव' इति है. लि. सटि. (क, ग) प्रतिद्वये पाठः । t'कारापिकास' इति ह. लि. सप्टि. (क) प्रतौ पाठः । १. संकरालकार ।
२, ३, ४. सत्वरजस्तमो लक्षणं यथा वदनमयना दिनसमता सत्वगुणेन स्यात् । रजोगुणेन तोषः। स चानन्दपर्यायः तकिंगानि स्फूर्यादानि, तमोगुणेन दैन्यं जन्यते । 'हा देव, नाष्टोऽस्मि वञ्चितोऽस्मि, श्यादि वदनविच्छायता ने चनादि व्यजनीयं दैन्यं तमोगुणलिशामिति । यशस्तिलक की संस्कृत टीका पृ. ४० से समुदत।
अर्थात् सत्व, रज और तम का लक्षण निम्न-प्रकार है । सत्व गुण से मानव के मुख व नेत्रादि में प्रसवता होती है और रजोगुण से संतोष होता है, जिसे आनन्द भी कहते हैं। स्फूर्ति-उत्साह-आदि उसके झापक चिन्द हैं।
एवं तमोगुण से दीनता प्रकट होती हैं। -हाय देव, मैं नष्ट हो गया, इत्यादि दीनता है। मुख की म्लानसा बनेनों का संकोच करना-आदि द्वारा प्रकट प्रतीत होनेवाली दीनता तमोगुण से प्रकट होती है।
-सम्पादक