SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यशस्तिलकपम्पूकाव्ये मिसानोनितीमितमानपरितस्थ भिपिकचित्प्रमत्यनुत्तरलतालबेताबालविवन्धमानहाकिनीताशवाइम्बरम्, चिदअमावीलभूतनिसिसिपायरभरमपमानास्पर्शभूरुहम्, कपिलमोहमउमस्करबलयाखेकस्कपालिनीत्रिशूलबहाननिर्मिअनुसन्मारपामारकोरकामिनीवर्सरी किममाणकभाभोगम्, कपिदुमाधप्रमाथसायंमानपिथुरापितजयमन्धरकपालकमपिसकिन्धुपायाचाराक्षसक्षिप्यमाणयक्षरक्षित क्षेत्रमिक्षितवनदेवतापोतम्, कधितरक्षुरक्षोदामकालास्थिमा, स्कोशिसाहसयमानाबाना निवैजगन्तीकम्, कपिछार्दूलदानयवदनविदयमानचिरमिशन यालियोलमार, चिस्कासासूरवरप्रचारपद्यमान फरारूराम, चित्काररूपकोणपकराएकरविकीर्यमाणबपिविक्सिपिरियोनिकाचवहिपमानास्वामशोणितदभित्तिपश्चाङ्गुलम् , कचिदसर्वगर्योपूर्णमोमलुनमामे (को) मनमाषपानपात्रासानिपपरम्, चित्साधकलोकनिमशिरोवामानगुग्गुलरसम्, सचिनरव्यानप्रबोकि तीवानिरवनियादीपन अत्यन्त सह और विस्तृत होती है। प्रसङ्ग-उस चण्डमारी देवी के मन्दिर का प्राङ्गण उक्त प्रकार की महान व्यन्वरी देवियों से परिपूर्ण था। फिर कैसा है यह चण्डमारी देवी का मन्दिर ? जहाँ पर किसी स्थान में नृत्य करते हुए व उत्कट हस्त-ताड़न करनेवाले येताल-समूहों द्वारा हाकिनियों के तारडव-नृत्य का विस्तार बाधित क्रिया जारहा है। किसी जगह पर, भृकुटिबन्ध से मनामक व्यन्तर विशेषों द्वारा निकाले हुए या भगाये हुए वानररूप राक्षसों के भार से जहाँ पर निकटवर्ती वृष स्वयं भक्त ( नष्ट) होरहे हैं। किसी स्थान पर, हाथों पर स्थित व अत्यन्त भयानक डमरुओं के शब्द संबन्धी लय ( साम्य) से झीदा करती हुई व्यन्तरी योगिनियों के त्रिशूलों के उच्छलन से मुकुटरूप चन्द्रमा, विद्र सहित किए गए थे और जिसके फलस्वरूप उनसे अमृत-क्षरण-प्रवाहित हो रहा था, उस अमृत के पीने में तत्पर हुई कोर-कामिनियों द्वारा जहाँपर दिशाओं का समूह विचित्र वर्णशाली किया आरहा था। जहाँपर किसी स्थान पर हिंसक या उच्छल प्रमाथगणों (पिशाच-समूहों) से पीड़ित किये जानेवाले रापसों द्वारा अर्पित किए गए गीले मांस से भरे हुए सकारों के खण्ड पाए जाते हैं। कहाँ पर किसी स्थान पर प्रज्वलित मूंख के कारण खाने में विशेष लम्पट काकरूप राक्षसों द्वारा, वनदेषियों के ऐसे बाखक गियए जा रहे हैं, जो यक्ष द्वारा रक्षित स्थान पर छोड़े गए थे। किसी जगह, जंगली कुकुर रुप रामसों के तीक्ष्ण दाँतों द्वारा जहाँ पर इदियों के सट ( प्रान्तभाग) तोड़े जा रहे हैं। जहाँपर किसी स्थान पर, सकरूप राक्षसों के चनुपुटों द्वारा शुष्क धर्मखजाएँ खण्डित की जारही है। जहॉपर किसी जगह, करों के कण्ठसमूह व मस्तकसमूह पर स्थित अटाओं से, जो कि व्याघ्र देषधारी राक्षसों के मुलों से पवाई जा रही थी और चिरकाल से बिम-मित्र की जारही थी, व्याप्त हुई तोरणमालाएँ पाई जाती हैं। किसी स्थान पर भैसासुरों के सुरों के संचरण से जहाँपर पशुभों के शुष्क शरीर रूप किने घर-घर (मप्र) किये जा रहे हैं। जहाँपर किसी स्थान पर गजासुरों के उमत शुण्डादण्डों से आजपर्म के बदथे शेपण किए जारहे हैं। जहाँपर किसी स्थान में शुष्क ष रुधिर-निमित भिात्तयों के पित्र विद्वानास्प रामसों के तीक्ष्ण नखों के अग्रभागों द्वारा खोदे व उकीरे जा रहे है। जहाँपर किसी स्थान पर महान् पर्ष से व्याप्त शृगालरूप राक्षसों से आस्वादन किए जाने वाले मच के पात्र भूत मद्यघटों के शकस (संस) पाए जाते हैं। जहाँ पर किसी स्थान पर मन्त्रसाधक पुरुषों द्वारा अपने मस्तक पर वसाये जाने वाले गुग्गुल का रस वर्षमान है। जहाँ किसी जगह पर दुष्ट पुरुषों द्वारा अपनी नसों की अभियों के बीफ अक्षाए गये हैं। ...लि. सटि. प्रतिगों से संरलित । मु. प्रती तु 'रक्षीदरावदार्यमाषपुराणास्थिप्ररर्थ' ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy