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________________ प्रथम आवास ZE चिन्महासाहसिकास्परुचिरापानप्रसाद्यमानरुद्रम् कचिन्महामतिकवीरकन्यविक्रीचमाणस्वनवरीपकृष्टस्वकीयान्त्रयन्त्रदलतोयमाणमातृमण्डलम् कचित्परुषमनी ममनुरमीत राहून रामलसहिद, कमस्मापि - शङ्काङ्कम, महाकालस्यापि विहितसाध्वलोकम्, समस्तस्वसंहारायतनं देवतायतनमुपगम्योपविश्य पापको कीनाशनगर मार्गानुकारिणा करार्थितेन तरवारिणा प्रकम्पितरातुरोकस्तमिथुना डाकिमदानादिवेश। अत्रान्तरे भगवानमरचूडामणिमयूख शेखरितचरणनखशि बोडेखपरिधिः, वसापरमामनिधिः, अवाश्याम्, कारयाचा (घ) चातुर्यसूतभावना प्रभावप्रकम्पिताय । तत्रिनस वनदेवतो संसप्रसूनमकरन्दस्वन्द जहाँ किसी प्रदेश पर महासाहसी पुरुषों द्वारा अपनी रुधिर धारा पीने के फलस्वरूप रुद्र ( श्री महादेव ) प्रसन्न किये जा रहे हैं। जहाँ पर किसी स्थल पर चार्षाक ( नास्तिक) बीरों द्वारा अपने शरीर का काटा हुआ मांस मूल्य लेकर बेचा जारहा है। जहाँ किसी जगह पर निर्दय पुरुषों द्वारा अपने पेट से बाहर निकाली हुई अपनी चाँतों के समूह से क्रीड़ा करने के कारण मातृ-मण्डल (ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौसारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी और चामुण्डा ये सात माताएँ) प्रसन्न किया जा रहा है। जहाँ किसी स्थान पर निर्देयबुद्धि पुरुषों द्वारा अपने मांस की आहुतियों से अग्नि देवता सन्तुष्ट किया जा रहा है। एवं जिसने यमराज के हृदय में भी मृत्युभय या प्राणघातक व्याधिविशेष की आरा उत्पन्न की है, फिर सर्व साधारण लोगों का तो कहना ही क्या है। और जिसने रुद्र के चित्त में भी विशेष भय उत्पन्न किया है। इसीप्रकार जो समस्त प्राणियों के संहार - प्रलय (नाश) का स्थान है। प्रस्तुत मारिस राजा उक्त प्रकार के चरउमारी देवी के मन्दिर में प्राप्त होकर उसके सिंहासन के निकट बैठ गया । तत्पश्चात् खड़े होकर मृत्यु- मुख में प्रविष्ट कराने वाली व हस्त में धारण की हुई तीक्ष्ण तलवार से समस्य देव दानवों के समूह को कम्पित करते हुए उसने [मनुष्य युगल की बलि करने के उद्देश्य से ] चण्डक नाम के कोट्टपाल के सेवकों को शुभलक्षणों से युक्त मनुष्य-युगल ( जोड़ा ) लाने की आज्ञा दी। इस अवसर पर ( उसी चैत्र शुक्ला नवमी के दिन ) राजपुर नगर की ओर विहार करने के इच्छुक ऐसे 'सुस' नाम के आचार्य ने, अपने संघ-सहित विहार करते हुए पूर्व दिशा में उक्त नगर का 'नन्वमवन' नाम का उद्यान देखा । कैसे हैं सुदत्ताचार्य ! जो समस्त इन्द्रादिकों द्वारा पूजनीय हैं। जिसने देवों के शिरोरलों की किरणों में अपने चरण-नख मुकुदित किये हैं और उनकी अम किरण समूह का परिवेष (मण्डलघेरा ) प्रकटित किया है। जो 'सुदत्त' इस दूसरे नाम की अक्षय निधि होते हुए अनाश्वान्' (अनेक उपवास करनेवाले हैं अथवा इन्द्रियरूप चोरों पर विश्वास न करके उन पर विजय प्राप्त करनेवाले (पूर्ण जितेन्द्रिय), शाश्वत् कल्याणमार्ग की साधना में स्थित एवं अहिंसाधर्म की मूर्ति होने के कारण समस्त प्राणियों द्वारा विश्वास के योग्य) हैं। जिसके चरणकमल भावर्यजनक पंचाचार सम्बग्दर्शनादिआचार) रूप चरित्रधर्म के अनुष्ठान चातुर्य से उत्पन्न हुए महान् भेदज्ञान के अनोखे प्रभाव से पूर्व में कम्पित कराये गए पश्चात् शरण में आए हुए नत्रीभूत यनदेवता के फुके हुए मुकुट संबंधि पुष्परस के क्षरण से दुर्दिन को प्राप्त हुए हैं। अर्थात् प्रस्तुत भुक्कुटों के पुष्परस के चरण से जहाँ पर बँधेरा-सा या गया है। १. थोऽक्षस्तेनेष्वविश्वस्तः शाश्वते पथि निष्ठितः । समस्तसत्वविश्वास्यः सोऽमाश्वानिह गीयते ॥ बच्च
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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