SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अश्विास कि च । मतेः सूतेजि समति मनसश्चक्षुरपरं । यदाश्रिल्पास्मार्य भवति निम्मिलनेविषयः ।। विवरत्यन्तैर्भस्तिभुषनाभोगविभवैः । स्फुरत्तस्वं ज्योतिस्तादिद भयतादारमयम् ॥१०॥ सर्वशकः कविभिः पुरातनैरवीक्षितं घस्मु किमस्ति संप्रति । रोदयुगीनस्तु कुशाप्रधीपि प्रयक्ति यत्तत्सदृशं स विस्मयः ॥११॥ कृतीः परधामविलोकमानस्ततितकापि कमिन दोनः ! अक्षयो राजपचेन सम्यक्प्रयानिव प्रत्युत विस्मयाय ॥१२॥ हत्या कृती: पूर्वकृताः पुरस्तात् प्रत्यक्ष साः पुनरीक्षमाणः । तथैव जल्पेदय योन्यथा वा स काव्यचौरोऽस्तु स पातकी च ॥१३॥ असहायमनार्या रत्न रत्नाकरादिव | मत्तः काव्यमिदं आसं सता रदयमण्डनम् ॥१४॥ उक्तयः कविताकान्ताः सूक्तयोऽप्रसरोचिसाः । युतयः सर्वंशाम्बान्तास्तस्य यस्पाय कौतुकम् ॥१६॥ किंचित्काव्यं श्रवणसुभगं वर्णनोवीर्णवणं किंचिद्वायोचितपरिचयं हसमस्कारकारि ! भवासूप्रेरक इह सुकृती फिन्तु युक्तं तदुर गुत्पश्यै सकलविषये स्वस्य चान्यस्य च स्पान ॥१६॥ स द्वादशाङ्ग तज्ञान के लिए हमारा नमस्कार हो, जिसका द्रव्य व भावरूप से बार बार अभ्यास करके यह मानव अद्वितीय ज्ञानचक्षु प्राप्त करता हुआ समरत जानने योग्य लोकालोक के स्वरूप का शाता होजाता है और जिसमें समस्त तत्त्व (जीय व अजीबादि ) तीनों लोकों में विस्तार रूप से पाई जानेवाली अपनी भनन्त पर्यायों के साथ प्रकाशित होते हैं एवं जो विशेष प्रतिभा की उत्पत्ति का कारण है ॥१०॥ लोक में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं, जो सर्वज्ञ समान प्राचीन प्राचार्यों समन्तभद्रादि ऋषियोंद्वारा अज्ञात हो तथापि इसकाल का कवि तीक्ष्णवुद्धि होता हुआ भी इस पंचमकाल में उनके समान अन्य-रचना करता है, यह आश्चर्य की बात है ॥ ११॥ जो कयि दूसरे प्राचीनकवियों के काव्यशासों पक्षण न करता हश्रा उनकी काव्यवस्त भी कहता है, वह जघन्य न होकर उत्कृष्ट ही है। क्योंकि अक्षु-हीन मानय राजमार्ग पर बिना रखलन के गमन करता हुआ क्या विशेष आश्चर्यजनक नहीं होता ? अवश्य होता है ।। १२ ।। जो कार प्राचीन श्राचार्यों की कृतियों-काव्य रचनाओं को सामने रखकर प्रत्येक शब्दपूर्वक उनका बार-बार अभ्यास करता हुथा उसीप्रकार कहता है, अथवा उसी काव्यवास्तु के अन्य प्रकार से कहता है, वह काव्यचौर व पापी है ॥ १३॥ प्रस्तुत 'यशस्तिलकचम्पू नामका महाकाव्य, जो कि अद्वितीय (बेजोड़ा, दुसरे काव्यग्रन्थों की सहायता से रहित और किसी अन्यप्रन्य को आदर्श न रखकर रचा हुअा होनेसे विद्वानों के वक्षःस्थल का माभूषण रूप है, मुझ सोमदेवमूरि से उसप्रकार उत्पन्न हुआ है जिसप्रकार समुद्र व स्वानि से रत्न उत्पन्न होता है" ॥ १४॥ इसके अभ्यास करने में प्रयत्नशील विद्वान् को नयीन काव्यरचना में मनोहर म मूतन अर्थोद्रायनाएँ उत्पन्न होगी एवं अवसर पर प्रयोग करने के योग्य सुभाषितों का तथा तर्क, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार व सिद्धान्त-श्रादि समस्त शास्त्र संबंधी युक्तियों का विशेष शान उत्पन्न होगा ॥१५॥ ___ कोई काव्य, रचना में उत्कट अश्भरशाली होने से कर्यामृतप्राय होता है और कोई काव्य प्रशस्त अर्थ की बहुलता से हृदय में चमत्कार-जनक होता है। इसप्रकार लोक में शब्दाडम्बरयुक्त व अर्थबहुल काव्य के प्रति कौन बुद्धिमान् कुपित होगा? परन्तु कवि की वही कृत्ति-काव्य रचना-जो कि स्वयं और दूसरों को समस्त शास्त्र संबंधी तत्वज्ञान कराने में विशेष शक्तिशाली है, सर्वश्रेष्ट समझी जाती है ।।१६।। १- अतिशयालंकार व जाति-अलंकार। २–आक्षेपालंकार । -'कृलेक्षणो' इति मु. सटीक प्रती पाटः, भतिस्तु 'कृमाहिंसायाम् इति पाताः प्रयोगाद। ३-आक्षेपालंफार 1 ४-उपमालंकार। ५-उपमालंकार । -प्रस्तुत काव्यशान का फलप्रदर्शक अतिशयालंकार । ७-आक्षेपाळकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy